बातें समझदारियों की , बातें बेवकूफ़ियों की , बातें उलझनों की , बातें सुलझनों की , बातें तन्हाइयों की, और कभी रुसवाइयों की , कितने सारे शब्द, कितनी सारी बातें, गुम हो जाते हैं यूँ, जैसे कभी थे ही नहीं , रह जाती है आवाज़ ज़हन में गूंजती कहीं , फ़िर कभी यूँ भी होता है कि कुछ नहीं रहता , कुछ भी नहीं , कोई नहीं , न सुनने वाला, न सुनाने वाला , न उलझ्नेवाला , न सुलझानेवाला, रह जाती है आखिर, एक खाली जगह , एक मौन और बस शान्ति... ....निरुपमा ( 5.9.19)
ज़िन्दगी के सफहों को पलटते हुए, कुछ ख़ास पल जैसे हाथ पकड़कर रोक लेना चाहते हैं!