Skip to main content

Posts

जाने दिया .......

कितने करते गिले शिकवे, सो बस अब जाने दिया।  उसको उसके लिए ख़ुद से दूर बस जाने दिया।  ख़ाक में मिलना था एक रोज़ इस मोहब्बत को, तो आज क्यूँ नही,  उसके लिए और कितना तड़पते, सो बस अब जाने दिया।  इश्क़ कभी था उसको, इस बात का यकीं क्यूँकर करें,  नफरतों की आंधी में सुलगना था सो सुलगते रहे,  उसकी नज़र के बेगानेपन को जिया है एक उम्र तलक,  इस दर्द को मैंने सहा, और सहन कितना करें!  ज़ख़्म अब नासूर बना, सो उसे जाने दिया।  क्यूँ पूछते हो हाल मेरा, सच कहना मुश्किल होगा,  झूठ और कितना कहें सो इस बात को भी जाने दिया।  निरुपमा(11.04.2024) 

तुम पर ही रख छोड़ी है....

प्यार मुझको हुआ तुमसे,  तुमको मुझसे हो न हो,  ये बात तुमपर रख छोड़ी है।  वक़्त मिलता रहा, तुम भी मिलते रहे,  वक़्त जाता रहा, अब तुम मिलो न मिलो,  ये बात  भी तुमपर रख छोड़ी है।  सेंकड़ों की राह में, एक राह तुमसे मिली,  मैं अनवरत चल रही थी और बस ठहर गयी।  तुम भी ठहर जाओ, ये मैं तुमसे कैसे कहूँ,  अब तुम ठहरो न ठहरो  ये बात भी तुमपर रख छोड़ी है।  गुज़रे सालों में इस दिल में ढेरों शिक़ायते रही, शिक़ायतों को जानने पर बस एक तुम्हारा ही इख़्तियार रहा।  अब चाहो तो दूर दूर रहो, तुम कुछ सुनो न सुनो,  ये बात भी तुमपर रख छोड़ी है।  दिल ने सलीके से बुने थे ख़ाब अपने, हर ख़ाब की तामील पर, इक तुम्हारा ही इख़्तियार रहा।  मैं अब भी तुम्हारी हूँ, तुम मेरे हो के नही,  ये बात भी, बस तुम पर ही रख छोड़ी है।  निरुपमा (15.2.24) 

तब इश्क़ समझ आया...

बंद दरवाज़े पर जब दस्तक पड़ी, तब इश्क़ समझ आया। जब समझा नहीं कुछ और, तब इश्क़ समझ आया। दूर से सुनती रही आहट उसके कदमों की, साहिल पर झूमती रही, सायों को चूमती रही, बंद आंखों के सहारे थे झिलमिल सपने, सपनों की डोर टूटी, तब इश्क़ समझ आया, साहिल पर जब डूबी, तब इश्क़ समझ आया। निरुपमा (8.2.24)

बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की, तो बोलो तुम क्या करोगे?

 बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की, तो बोलो तुम क्या करोगे? गुज़रे हुए लम्हों में जो बरसों की दफ्न यादें हैं, यादों में गहरे ज़ख्म हैं, ज़ख्मों पर परी परतें हैं। उन ज़ख्मों से परतों को गर हटा दूं, तो बोलो तुम क्या करोगे? बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की तो बोलो तुम क्या करोगे? तुमने मुझे छोड़ा था, मेरे सबसे बुरे वक्त में, जब तन्हाई बना साथी और आंसू बने श्रृंगार उस साथी उस श्रृंगार का तुमसे नाता जोड़ दूं, तो बोलो तुम क्या करोगे? बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की तो बोलो तुम क्या करोगे? निरुपमा (5.2.24)

इश्क़ की शर्त ....

 दिल के टूटे की आवाज़ कहां होती है, दिल मगर टूटे तो बहोत देर तलक रोता है, कांंपने लगते हैं होंठ कुछ कहते नहीं, और शिकन आंखो में फ़िर साफ़ नजर आता है, एक छोड़ा हुआ होता है, दूजा छूटा हुआ, दोनो के दिल से पर आह... एक निकलती है, इश्क़ की शर्त है, रोना है, दर्द सहना है, लाख रोको मगर इश्क़ कब ठहरता है। निरुपमा (23.11.2023)

कवियों की कल्पनाओं से परे, स्त्री का स्वाभाविक रूप... कुछ यूं.......

स्त्री जब मेहंदी लगाती है, तो वो सोचती है कि उसकी मेहंदी लगी हथेलियों को कोई अपने हाथों में रखकर उनकी खुशबू लेता रहे। जब वो श्रृंगार करती है, तो सोचती है उसकी तिरछी हुई बिंदी कोई सीधी कर जाए, कभी जुल्फों से वो क्लिप खोलता जाए, कभी गजरे सजाता जाए। कभी उसी के काजल के कोर से हल्का सा काजल लेकर उसके गर्दन पर लगा दे कि किसी की नज़र ना लगे। कभी चूड़ी की खनक सुनकर वो बांह पकड़ ले, कभी पायल की आवाज़ उसके मुस्कुराहट की वजह बने और कभी हौले से साड़ी का जब वो सिरा टकराए तो उसके होश उड़ जाएं। अनगिनत ऐसी छोटी छोटी उम्मीदें उसके जीने की वजह होती हैं। स्त्री बेहद सरल बेहद सादी होती है। निरुपमा(19.8.2023)

बस यूं ही ....

अपना अपना दर्द था,अपनी अपनी शिकायते, कभी वो मुंह फेरकर चल दिए, कभी मैने नज़र झुकाकर काम लिया। बरसों से सुलगते तन मन को, बस पल भर का आराम मिला, जब मैंने नजर उठाई तो, ठीक सामने उसका सामान मिला। था दर्द दिलों में सदियों का, थीं रूह भी प्यासी प्यासी सी, उसने जो पलटकर देखा मुझे, मेरे दिल को ज़रा आराम मिला, अब बीत चुकी थी यादें भी और गुज़र गया था हर लम्हा, उस बंद गली के मोड़ पे फिर, ये किसका पड़ा सामान मिला, हर नक्श मिटाकर बैठी थी, मैं दिए बुझाकर बैठी थी, मुझको मेरे ही पहलू में, कोई किस्सा यूं अनजान मिला, बरसों से सुलगते तन मन को, बस पल भर का आराम मिला, निरुपमा (4.8.2023)