Skip to main content

Posts

Showing posts from July, 2020

बूँदें बारिश की, और तुम्हारा ख्याल….

  तेज़ हवाओं के झोकों ने मेरे सिर से दुपट्टा उड़ा दिया , तुमने हाथ बढ़ाकर उन्हें थाम लिया , मैंने सिर झुकाया , शर्म से नज़रें नीची हुईं, तुमने हौले से दुपट्टा मेरे सिर पर डाल दिया , और मुस्कुराकर बस इतना ही कहा, इस कदर मेरे ख्यालों में न खोया करो , कि खुद की खबर न रहे.... _____________ तुम्हारी खुशबू, मेरे आँचल में आज भी मौजूद है. निरुपमा ( 25.7.20)      

वो अपना हो चला था....

उसी के सामने हमने अपनी दास्तां कह दी, कि जिसके सामने जाने से भी कतराया करते थे। वो बैठा था मेरे ही रू-ब-रू मुझको ही तकता था, कि जिसके रास्ते से अक्सर हम हट जाया करते थे। ये कैसी कशमकश ने घर किया था अपने दर्मियां, वो अपना हो चला था जिसको हम झुठलाया करते थे। निरुपमा (23.7.20)

एक शेर...

टहलती रहती हूं अक्सर माज़ी के उसी ड्योढ़ी पर, कि जिसकी याद भी आंखों में अब धुंधली सी बची है।  निरुपमा(23.7.20)

झिझक....

बात तो दिल की थी, सारे जहां के चर्चे हुए। ऐसी भी क्या झिझक के, सामने आते ही, हर बार मसला बदल दिया। निरुपमा(21.7.20)

इश्क़

इक ख़ामोश सी सदा आती है,  उसकी दो निगाहें अब भी मुझे बुलाती है, तस्वीर हटा दी, हर ताल्लुक़ तोड़ दिए, कैसे मेरे अंदर वो अब भी गुनगुनाती है! इश्क़ की जाने ये कैसी इंतहा है, दर्द उसे हो तो आंख मेरी भर आती है। मेरे मन के इस अन्तर्द्वन्द पे कहीं, वो मासूम नज़रों से यूंही मुस्कुराती है। देखते हैं अंजाम - ए- इश्क क्या हो, अपनी धड़कन तो आगाज़ ही में मचल जाती है। निरुपमा (21.7.20)

वहाँ अब रह भी क्या गया था?

वहाँ अब रह भी क्या गया था? और तो कुछ भी नहीं कुछ दीवार, कुछ खिड़कियाँ , कुछ दरवाज़े अधखुले से, कुछ गुज़री रातों की यादें , और हाँ हमारी पहली और आख़िरी मुलाक़ात के चंद दफ्न हो चुके बासी लम्हें.. वहाँ अब रह भी क्या गया था! और तो कुछ भी नहीं ...निरुपमा

मोड़.......

उस एक मोड़ से, जहां से अपने रास्ते एक होते, ठीक उसी मोड़ पर हमदोनो जुदा हुए, उसकी बेपरवाही और भी बढ़ती गई, मेरा जुनून - ए- इश्क़ धीमे धीमे दम तोड़ता गया, वो जाते क़दमों को और फ़िर लौटा न सका, मैं गुज़रते वक़्त को तस्वीर सी तकती रही। निरुपमा (13.7.20)

तुझसे मुझ तक, मुझसे तुझ तक....

कुछ बातें... तुझसे मुझ तक, मुझसे तुझ तक, अनवरत बहती रहती हैं, धाराएं तय कौन करता है?  कोई नहीं। बातों को शब्द नहीं मिलते, आवाज़ नहीं मिलती, मिलती है कभी मुस्कान,  कभी अकेलापन, कभी उदासी। उदासी की दिशा तय कौन करता है, बहती रहती हैं, तुझसे मुझ तक मुझसे तुझ तक। निरुपमा (10.7.20)

अलविदा...

बात तो कुछ भी न हुई, न कुछ कहा, न सुना, स्मृतियों के ताने बाने को सुलझाते अब काफी वक्त हो चला था, ना प्यार, ना उलझन, ना दर्द, ना शिकायतें, पर उसकी नज़र उठी, कुछ पूछने के लिए, मेरी पलकें झुकी, कि वो सब कुछ तो जानता था। मैंने एक और बार उसकी ओर देखा,  वो दूर पड़ी दीवार घड़ी को तक रहा था,  जो बताती थी, अब जाने का वक़्त हुआ, मेरी पलकें झुकी और एक गहरी सांस के साथ उसको अलविदा कहा। .... निरुपमा(8.7.20)

बस यूंही

मैंने तीली से जलाकर बुझाया, बुझाकर जलाया, ढूंढ़ा उन नज़रों को अपने रू - ब- रू, और पाया, उजाले की चमक में वो खो गया, पास आ गया,  जब अंधेरों की महफ़िल लगी।