और चलते चलते कदम ठिठक कर ठहर जाते हैं, जैसे आवाज़ कोई सुनी हो तुम्हारी, जैसे झलक दिख जाए कहीं। जैसे शोर के बीच सुकून की वो निगाह पड़ी हो मुझपर, जैसे हौले से हाथ पकड़कर मेरी पेशानी पर एक बोसा रखा हो तुमने। के जब कि मुझको भी ये ख़बर है के तुम नहीं हो, कहीं नहीं हो, पर ये दिल कह रहा है, तुम यहीं हो... यहीं कहीं हो।। निरुपमा (14.5.23)
ज़िन्दगी के सफहों को पलटते हुए, कुछ ख़ास पल जैसे हाथ पकड़कर रोक लेना चाहते हैं!