Skip to main content

बस इतना ही बहोत है के तुझे मैं याद हूँ अबतक......


बस इतना ही बहोत है
के तुझे मैं याद हूँ अबतक,
मैंने कब चाहा, मैं तेरा जुनूं बन जाऊं,
तेरी ज़िन्दगी तेरा सुकूं बन जाऊं,
तेरी पलकें खुलें तो हर तरफ तू ढूंढें मुझे,
अपने हर एक पल में मुझको तू पुकारा करे,
तेरी सुबह में तेरी शामों में
फ़िक्र मेरा हो, और ज़िक्र सिर्फ़ मेरा हो,
बस इतना ही बहोत है
के तुझे मैं याद हूँ अबतक,

हर घड़ी दिल बेचैन सा रहता था,
लोगों का साथ जैसे हर पल डसता था,
अकेलेपन में अब सुकूं मिलने लगा था,
माज़ी का ज़ख्म भी भरने लगा था,
फ़िर भी न जाने क्यूँ, कदम बढ़ते नहीं थे,
तुझे खोने के दर्द से उबरते नहीं थे,
जैसे दिल पर कोई बोझ लिए बैठे रहे,
तेरे बिन..... तेरे संग संग जीते रहे,
एक रोज़ जाने किसकी आवाज़ मुझको आई थी,
जैसे मेरे ही ‘मैं’ ने मुझको आवाज़ लगाईं थी,
कुछ अनमने से ढंग से मेरा दर्द मुझसे टकरा गया,
तू सामने आया और.... सब याद आ गया,
तेरी नज़रें तेरी पलकें, तेरी आवाज़ में ज़िन्दगी पायी थी,
एक तेरे जाने से मैंने पूरी ज़िन्दगी गवाई थी,
आज फ़िर रूठी हुई दास्ताँ याद आने लगी,
गुज़रे लम्हे की तपिश फ़िर से जलाने लगी,
और देखा तुझे तो इस दफ़े बहोत कुछ पाया,
ये भी पाया के तुझे मैं याद हूँ अबतक,
बस इतना ही बहोत है
के तुझे मैं याद हूँ अबतक..
....निरुपमा (15.11.19)

Comments

  1. वक़्त थमता नहीं कहीं किसी जगह साँस रुकती नहीं किसी पल वक़्त से पहले

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

जाने दिया .......

कितने करते गिले शिकवे, सो बस अब जाने दिया।  उसको उसके लिए ख़ुद से दूर बस जाने दिया।  ख़ाक में मिलना था एक रोज़ इस मोहब्बत को, तो आज क्यूँ नही,  उसके लिए और कितना तड़पते, सो बस अब जाने दिया।  इश्क़ कभी था उसको, इस बात का यकीं क्यूँकर करें,  नफरतों की आंधी में सुलगना था सो सुलगते रहे,  उसकी नज़र के बेगानेपन को जिया है एक उम्र तलक,  इस दर्द को मैंने सहा, और सहन कितना करें!  ज़ख़्म अब नासूर बना, सो उसे जाने दिया।  क्यूँ पूछते हो हाल मेरा, सच कहना मुश्किल होगा,  झूठ और कितना कहें सो इस बात को भी जाने दिया।  निरुपमा(11.04.2024) 

शायद ख़ुद की तलाश में।

          आज फ़िर अकेलेपन ने घेर लिया मुझको, सांसों के लय में कोई समानता नहीं, इसके सुर-ताल बिगड़े हुए हैं। ये धड़कने मेरे कानों तक पहोचकर कोहराम मचाए हों जैसे। एक थकावट चारों ओर से घेरे हुए है, हाथ पैर हिलते नहीं, शरीर जैसे जड़ हुआ जाता है, नज़रें पहरों तक झुकी रहती हैं, एक टकटकी लगाए, पत्थर सी। मैं फ़िर से दौड़ना चाहती हूँ, हंसना चाहती हूँ, खिलखिलाना चाहती हूँ, पर अकेलापन मुझे और भी अधूरा किये जाता है। मालूम नहीं ये क्यूँ है! या शायद मालूम करना भी नहीं चाहती।               उम्र के हर दहलीज़ से गुज़र कर देखा, कई बार रस्ते बदलकर देखा, हर उम्र ने हर रस्ते ने मेरा हाथ थामकर कहा, थम जाओ ज़रा, ठहर कर देखो तो ज़रा ख़ुद को, क्या हाल कर लिया तुमने अपना। एक हल्की सी भीगी पलकों पर मुस्कान लिए, फ़िर से निकल पड़ती हूँ उस राह पर, जाने किसकी तलाश में, शायद ख़ुद की तलाश में।  निरुपमा (2/6/25) 

तुम पर ही रख छोड़ी है....

प्यार मुझको हुआ तुमसे,  तुमको मुझसे हो न हो,  ये बात तुमपर रख छोड़ी है।  वक़्त मिलता रहा, तुम भी मिलते रहे,  वक़्त जाता रहा, अब तुम मिलो न मिलो,  ये बात  भी तुमपर रख छोड़ी है।  सेंकड़ों की राह में, एक राह तुमसे मिली,  मैं अनवरत चल रही थी और बस ठहर गयी।  तुम भी ठहर जाओ, ये मैं तुमसे कैसे कहूँ,  अब तुम ठहरो न ठहरो  ये बात भी तुमपर रख छोड़ी है।  गुज़रे सालों में इस दिल में ढेरों शिक़ायते रही, शिक़ायतों को जानने पर बस एक तुम्हारा ही इख़्तियार रहा।  अब चाहो तो दूर दूर रहो, तुम कुछ सुनो न सुनो,  ये बात भी तुमपर रख छोड़ी है।  दिल ने सलीके से बुने थे ख़ाब अपने, हर ख़ाब की तामील पर, इक तुम्हारा ही इख़्तियार रहा।  मैं अब भी तुम्हारी हूँ, तुम मेरे हो के नही,  ये बात भी, बस तुम पर ही रख छोड़ी है।  निरुपमा (15.2.24)