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आलिंगन

कैसी मद्धम सी आवाज़ है। तुमने सुनी है?
शब्द नहीं दूर दूर तक कहीं।
बस दो आंखें, कभी निशब्द खड़ी एक दूसरे को तकती हुई।
कभी हल्की सी मुस्कुराहट होठों के कोनों में फैली हुई।
आलिंगन तुम्हारा, कभी झकझोरता भी है।
कभी तुम्हारे इतने करीब लिए आता है,
जैसे मैं तुम नहीं, बस तुम ही तुम हो, बस मैं ही मैं हूं।
सुनो ये जो हल्की सी लट मेरी पलकों पर आ गई  है, इसे ज़रा हटा दो।
और धर दो अपने दो होंठ मेरे होंठों पर,
पलकें बंद ही रहने दो,
बंद पलकों में जहां सारा नज़र आता है मुझे,
बंद पलकों में बस एक तू ही नज़र आता है मुझे।
.....निरुपमा(24.5.20)

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जाने दिया .......

कितने करते गिले शिकवे, सो बस अब जाने दिया।  उसको उसके लिए ख़ुद से दूर बस जाने दिया।  ख़ाक में मिलना था एक रोज़ इस मोहब्बत को, तो आज क्यूँ नही,  उसके लिए और कितना तड़पते, सो बस अब जाने दिया।  इश्क़ कभी था उसको, इस बात का यकीं क्यूँकर करें,  नफरतों की आंधी में सुलगना था सो सुलगते रहे,  उसकी नज़र के बेगानेपन को जिया है एक उम्र तलक,  इस दर्द को मैंने सहा, और सहन कितना करें!  ज़ख़्म अब नासूर बना, सो उसे जाने दिया।  क्यूँ पूछते हो हाल मेरा, सच कहना मुश्किल होगा,  झूठ और कितना कहें सो इस बात को भी जाने दिया।  निरुपमा(11.04.2024) 

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