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माज़ी ....

 धीरे...

और धीरे...
दूरियां बढ़ती, और बढ़ती गईं...
उसकी नज़र के धोके से और धोखे खाती रही।
वक्त के मरहम भी अब काम आते नहीं।
धीमे और धीमे
फिसलता गया वक्त मेरे हाथ से।
शांत अंतर्मन, चंचलता की पराकाष्ठा तक पहुंचा,
फिर शांत और शांत हो गया।
ये शांति चिटियों सी रेंगती मेरे हाथ पैर, कान, आंख से शरीर और शरीर से मन तक आ पहुंची।
एक "हाय" की रट लगाता मेरा माज़ी, मेरे सामने आकर खड़ा हो गया।
मैने देखा उसको, माथे पर बोसे दिए, 

और पानी में तैरते कागज़ के नाव की मानिंद हाथ फेरकर उसे रवाना किया।
निरुपमा (13.9.2022)

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जाने दिया .......

कितने करते गिले शिकवे, सो बस अब जाने दिया।  उसको उसके लिए ख़ुद से दूर बस जाने दिया।  ख़ाक में मिलना था एक रोज़ इस मोहब्बत को, तो आज क्यूँ नही,  उसके लिए और कितना तड़पते, सो बस अब जाने दिया।  इश्क़ कभी था उसको, इस बात का यकीं क्यूँकर करें,  नफरतों की आंधी में सुलगना था सो सुलगते रहे,  उसकी नज़र के बेगानेपन को जिया है एक उम्र तलक,  इस दर्द को मैंने सहा, और सहन कितना करें!  ज़ख़्म अब नासूर बना, सो उसे जाने दिया।  क्यूँ पूछते हो हाल मेरा, सच कहना मुश्किल होगा,  झूठ और कितना कहें सो इस बात को भी जाने दिया।  निरुपमा(11.04.2024) 

बस यूं ही ....

अपना अपना दर्द था,अपनी अपनी शिकायते, कभी वो मुंह फेरकर चल दिए, कभी मैने नज़र झुकाकर काम लिया। बरसों से सुलगते तन मन को, बस पल भर का आराम मिला, जब मैंने नजर उठाई तो, ठीक सामने उसका सामान मिला। था दर्द दिलों में सदियों का, थीं रूह भी प्यासी प्यासी सी, उसने जो पलटकर देखा मुझे, मेरे दिल को ज़रा आराम मिला, अब बीत चुकी थी यादें भी और गुज़र गया था हर लम्हा, उस बंद गली के मोड़ पे फिर, ये किसका पड़ा सामान मिला, हर नक्श मिटाकर बैठी थी, मैं दिए बुझाकर बैठी थी, मुझको मेरे ही पहलू में, कोई किस्सा यूं अनजान मिला, बरसों से सुलगते तन मन को, बस पल भर का आराम मिला, निरुपमा (4.8.2023)

फैसलों की घड़ी ...

बस, फैसलों की घड़ी थी अब, न वो मेरा था, न मैं ही राह में खड़ी थी अब। अब जो छूटा, सब छूटता चला गया, मैंने भी इस दिल की, कब सुनी थी अब। दिल को कुछ कहना था, कोई नाम गुनगुनाना तो था, दिल की ना सुनूंगी, इस बात पर मैं अड़ी थी अब। तन्हाई की राह, बेहद तन्हा.. बेहद मुश्किल थी मगर, बस इसी राह पर चलने की अपनी ठनी थी अब। निरुपमा (14.12.22)