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फैसलों की घड़ी ...


बस, फैसलों की घड़ी थी अब,

न वो मेरा था, न मैं ही राह में खड़ी थी अब।


अब जो छूटा, सब छूटता चला गया,

मैंने भी इस दिल की, कब सुनी थी अब।


दिल को कुछ कहना था, कोई नाम गुनगुनाना तो था,

दिल की ना सुनूंगी, इस बात पर मैं अड़ी थी अब।


तन्हाई की राह, बेहद तन्हा.. बेहद मुश्किल थी मगर,

बस इसी राह पर चलने की अपनी ठनी थी अब।

निरुपमा (14.12.22)

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बस यूं ही ....

अपना अपना दर्द था,अपनी अपनी शिकायते, कभी वो मुंह फेरकर चल दिए, कभी मैने नज़र झुकाकर काम लिया। बरसों से सुलगते तन मन को, बस पल भर का आराम मिला, जब मैंने नजर उठाई तो, ठीक सामने उसका सामान मिला। था दर्द दिलों में सदियों का, थीं रूह भी प्यासी प्यासी सी, उसने जो पलटकर देखा मुझे, मेरे दिल को ज़रा आराम मिला, अब बीत चुकी थी यादें भी और गुज़र गया था हर लम्हा, उस बंद गली के मोड़ पे फिर, ये किसका पड़ा सामान मिला, हर नक्श मिटाकर बैठी थी, मैं दिए बुझाकर बैठी थी, मुझको मेरे ही पहलू में, कोई किस्सा यूं अनजान मिला, बरसों से सुलगते तन मन को, बस पल भर का आराम मिला, निरुपमा (4.8.2023)

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