बस, फैसलों की घड़ी थी अब,
न वो मेरा था, न मैं ही राह में खड़ी थी अब।
अब जो छूटा, सब छूटता चला गया,
मैंने भी इस दिल की, कब सुनी थी अब।
दिल को कुछ कहना था, कोई नाम गुनगुनाना तो था,
दिल की ना सुनूंगी, इस बात पर मैं अड़ी थी अब।
तन्हाई की राह, बेहद तन्हा.. बेहद मुश्किल थी मगर,
बस इसी राह पर चलने की अपनी ठनी थी अब।
निरुपमा (14.12.22)
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