स्त्री जब मेहंदी लगाती है, तो वो सोचती है कि उसकी मेहंदी लगी हथेलियों को कोई अपने हाथों में रखकर उनकी खुशबू लेता रहे। जब वो श्रृंगार करती है, तो सोचती है उसकी तिरछी हुई बिंदी कोई सीधी कर जाए, कभी जुल्फों से वो क्लिप खोलता जाए, कभी गजरे सजाता जाए। कभी उसी के काजल के कोर से हल्का सा काजल लेकर उसके गर्दन पर लगा दे कि किसी की नज़र ना लगे। कभी चूड़ी की खनक सुनकर वो बांह पकड़ ले, कभी पायल की आवाज़ उसके मुस्कुराहट की वजह बने और कभी हौले से साड़ी का जब वो सिरा टकराए तो उसके होश उड़ जाएं। अनगिनत ऐसी छोटी छोटी उम्मीदें उसके जीने की वजह होती हैं। स्त्री बेहद सरल बेहद सादी होती है।
निरुपमा(19.8.2023)
निरुपमा(19.8.2023)
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