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Showing posts from August, 2023

कवियों की कल्पनाओं से परे, स्त्री का स्वाभाविक रूप... कुछ यूं.......

स्त्री जब मेहंदी लगाती है, तो वो सोचती है कि उसकी मेहंदी लगी हथेलियों को कोई अपने हाथों में रखकर उनकी खुशबू लेता रहे। जब वो श्रृंगार करती है, तो सोचती है उसकी तिरछी हुई बिंदी कोई सीधी कर जाए, कभी जुल्फों से वो क्लिप खोलता जाए, कभी गजरे सजाता जाए। कभी उसी के काजल के कोर से हल्का सा काजल लेकर उसके गर्दन पर लगा दे कि किसी की नज़र ना लगे। कभी चूड़ी की खनक सुनकर वो बांह पकड़ ले, कभी पायल की आवाज़ उसके मुस्कुराहट की वजह बने और कभी हौले से साड़ी का जब वो सिरा टकराए तो उसके होश उड़ जाएं। अनगिनत ऐसी छोटी छोटी उम्मीदें उसके जीने की वजह होती हैं। स्त्री बेहद सरल बेहद सादी होती है। निरुपमा(19.8.2023)

बस यूं ही ....

अपना अपना दर्द था,अपनी अपनी शिकायते, कभी वो मुंह फेरकर चल दिए, कभी मैने नज़र झुकाकर काम लिया। बरसों से सुलगते तन मन को, बस पल भर का आराम मिला, जब मैंने नजर उठाई तो, ठीक सामने उसका सामान मिला। था दर्द दिलों में सदियों का, थीं रूह भी प्यासी प्यासी सी, उसने जो पलटकर देखा मुझे, मेरे दिल को ज़रा आराम मिला, अब बीत चुकी थी यादें भी और गुज़र गया था हर लम्हा, उस बंद गली के मोड़ पे फिर, ये किसका पड़ा सामान मिला, हर नक्श मिटाकर बैठी थी, मैं दिए बुझाकर बैठी थी, मुझको मेरे ही पहलू में, कोई किस्सा यूं अनजान मिला, बरसों से सुलगते तन मन को, बस पल भर का आराम मिला, निरुपमा (4.8.2023)