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Showing posts from June, 2020

एक बड़ा फ़ैसला.....

एक बड़ा फ़ैसला, तुम पर छोड़कर मैंने सोचा, कि अब कोई फ़ैसला न करना होगा, तुम्हारे किये फ़ैसले के लिए जीवन भर तुम्हे दोष देती।रही, सोचती रही, कि कितनी आसानी से तुमने किनारा कर लिया। गुज़रते वक़्त की उड़ान को पर कहां कोई रोक पाया है, वक़्त गुज़रता गया, और फ़ैसलों की घड़ी बार बार आती गई, वक़्त और हालात के मुताबिक मुझे फ़ैसले लेने पड़े, तब जाना, फ़ैसला लेना आसान नहीं होता। तुम भी तो चले होगे चाकू की तेज़ धार पर, जब तुमने कहा, अब बस सब खत्म हुआ, बस यहीं तक था साथ हमारा। .... निरुपमा (28.6.20)

ख्वाहिश

इन पलकों के ठीक पीछे जो चलता है वो क्या है! रस्ते पर चलती कारें, आसमान में उड़ते पंछी, आते जाते लोग, कोई नज़र ही नहीं आते, इन पलकों के ठीक पीछे एक चेहरा होता है। उस से जुड़ी अनगिनत यादें, जो साथ जिए, अनेकों ख्वाहिशें, जिनको जीने का मौका ना मिला, तुम्हे इस जीवन के अलग अलग क्षणों में लाकर देखा, तुम्हारे आसपास खुद को रखकर देखा, कभी अपने घर में तुमको, कभी तुम्हारे घर में खुद को रखकर देखा, स्कूल से कॉलेज की पढ़ाई तक साथ कर के देखी, हर रोज़ होने वाली छोटी बड़ी घटनाओं में तुम्हारे साथ चलकर देखा, और पाया, आज भी इस दिल की अधूरी ख्वाहिश तुम ही हो, आज भी इस अधूरे जीवन की पूर्णता तुमसे ही है। .... निरुपमा(26.6.20)

ज़रूरत??

जैसे कोई दीवार सी बना दी तुमने हमारे बीच, एक लकीर खीची और कह दिया, तुम इस पार नहीं आ सकती, मैं हूं, पर तुम्हारा नहीं, दिखूंगी, पर छूना नहीं, तुम आवाज़ देना जब भी ज़रूरत हो। ज़रूरत! ये ज़रूरत क्या होती है? क्या वो होती है, जो इस पल है, क्या वो होती है, जो हर पल है? वो रिश्ता ही क्या, जहां आवाज़ देनी पड़े, वो रिश्ता ही क्या जहां हम एक दूसरे की ख़ामोशी ना समझें। तुम थे, तो बहुत कुछ था कहने को, तुम गए, तो जैसे सारे शब्द गुम हुए। मैं ख़ामोश सी कोई तस्वीर बन गई, जैसे अधूरी सी नींद में कोई ख़्वाब टूट जाए .... निरुपमा (18.6.20)

ये ज़िन्दगी क्यूं कांच की कोई ख़्वाब सी लगे है।।

क्यूं रोती है ये ज़मीं, क्यूं रोता आसमां है, सितारों के जहान का, सवेरा वो कहां है। क्यूं आज दिल की बस्तियां, वीरान सी लगे है, ये चैन मन का दिन और रात, क्यूं लूटे ये जहां है, कोई जिए कोई मरे, क्या मायने रखे है? या मौत की ये बात भी, बस बात तक रहे हैं? हर हादसा यूं दिल पे क्यूं, कोई तीर सा चलाए, उस हादसे की बात क्यूं, दिल भूल नहीं पाए है। क्या रिश्ते हैं, कैसा जहान, सब दूर ही खड़े हैं, ये ज़िन्दगी क्यूं कांच की कोई ख़्वाब सी लगे है।। निरुपमा (17.6.20)

प्यार भाषा है ना पहचान।

प्यार भाषा है, ना पहचान, ना किसी संबोधन का नाम। ये जात नहीं, धर्म नहीं, दीन- ओ- इमां भी नहीं। ना बयां है, ना छिपा है। प्यार को मापा तौला, समझा या समझाया नहीं जा सकता। कोई उदाहरण नहीं, कोई पर्याप्त शब्द नहीं, कोई प्रप्या- अप्राप्य वस्तु नहीं। ये धर्म है न संस्कार है, ये जोगी का जोग नहीं, जोगन की माला नहीं पाप पुण्य से परे, धरती गगन से परे, ये मुझसे तुझसे नहीं। तुझमें मुझमें नहीं। न पलकों में पलते सपने, न आंखों से गिरे आंसू है। ये राधा की पुकार नहीं, श्याम की बंसी नहीं। ये वचन नहीं, कथन नहीं। प्यार ना तोड़ता है , ना जोड़ता है। न गिरता न संभलता है। ये गलियों से गुजरकर मेहबूब के घर का रास्ता नहीं । ये ममता नहीं, लोड़ी नहीं। ये साज श्रृंगार भी नहीं। गीत नहीं संगीत नहीं। ना आस है, ना उम्मीद है। ये बच्चे की किलकारी नहीं , ये कोई सपना नहीं, कोई हकीकत भी नहीं। ...... निरुपमा (15.6.20)

दास्तां......

और उसने एक रोज़ अपनी दास्तां लिखी। उसकी दास्तां का एक एक कोना आरती की मौजूदगी का आभास दिलाता था। लोगों को ज़्यादा वक़्त न लगा ये पहचानने में कि इसकी बर्बादी का सबब कोई और नहीं, आरती है। आरती को रंगे हाथों पकड़ा गया। उसके गीरेबां में, कुछ शेर थे, जो उसने सब से छिपकर लिखे थे। कमरे में कुछ तस्वीरें आड़ी तिरछी लगी हुई थी, जिस से ये साफ़ होता था, कि आरती आज भी शेखर से बेइंतहां प्यार करती है। उसकी हथेली में एक लकीर भी पाई गई, जिसे देखकर ऐसा लगता था, जैसे कुदरत जिस लकीर को बनाना भूल गया था, उसे आरती ने खुद ही खंजर की नोक से बनाया है, उस लकीर में शेखर का नाम लिखा था। आरती को समाज के ख़िलाफ़ इश्क़ करने और एक इंसान को ख़ुदा मानने के जुर्म के लिए गुनेहगार ठहराया गया। फ़ैसला यूं हुआ कि उसे पूरी ज़िन्दगी अकेले जीने के लिए छोड़ दिया जाए। .... निरुपमा (11.6.20)

कुछ सदी के लिए।

बातें कभी खत्म नहीं होती, बस बदलती रहती है। रिश्ते कभी खत्म नहीं होते,  वो भी रूप बदलते रहते हैं। खत्म होने जैसा कुछ नहीं, बस दिखने बंद हो जाते हैं, कुछ रोज़ के लिए कुछ सदी के लिए। ......निरुपमा (10.6.20)

सन्नाटा.......

जब किसी रिश्ते में आवाज़ कम, और सन्नाटा ज़्यादा फ़ैलता दिखे, तब निश्चित समझें कि, जल्द आवाज़ वाली जगह भी सन्नाटा ले लेगा। निरुपमा(4.6.20)

स्वर्ग.....

वो और बाबूजी दोनो पहले साथ ही काम किया करते थे। मां कहती थी, स्कूल कॉलेज भी दोनो ने साथ ही पूरी की। मैं कोई आठ बरस की थी जब वो घर आए थे, उन दिनों मैं अक्सर बहुत व्यस्त रहा करती थी। स्कूल से आने के बाद कुछ ही देर में दोबारा घर से निकल जाती, सामने वाली ज़मीन पर किसी का घर बन रहा था, वहां बहुत सी रेत पड़ी होती थी। उनमें से एक एक कर सीपियां चुनना कोई आसान काम था क्या? उन्हें चुनकर छत पर लाती। वहां मैंने एक घरौंदा बना रखा था, उसके अंदर मेरी गुड़िया रहती थी, उसके श्रृंगार का सामान भी खुद अपने हाथ से तैयार करती थी। एक रोज़ इन्हीं व्यस्तताओं के बीच सुना के बाबूजी के दोस्त आए हैं। वो जमशेदपुर में रहते थे। मां को अक्सर कहते सुना था, जमशेदपुर से आसमान बहुत नज़दीक पड़ता है। स्वर्ग जाना मेरा तो सपना हो चला था। स्वर्ग जाकर अपनी गुड़िया के लिए परियों वाले कपड़े लाने थे। बस जब बाबूजी के वो दोस्त आए, तो मैंने मन ही मन निश्चित कर लिया, कि इस बार किसी की नहीं सुनूंगी, और उनके साथ जमशेदपुर चली जाऊंगी। मैंने दूसरी ही सुबह उनसे पूछा भी था, ' कक्का, मैं आपके साथ चल सकती हूं ना? उन्होंने ' हां '

सपना कुछ अधूरा सा......

रात कोई दस साढ़े दस का वक़्त था। मैं कॉफ़ी का मग लिए टैरेस पर बैठी, दूर आसमानों में टिमटिमाते तारों को देख रही थी, आज चांद पूरा नज़र आया था, शायद पूर्णमासी होगी। ऐसी ही जाने कितनी पूनम की रातें हमने साथ टिमटिमाते तारों को देखते हुए गुज़ारी थी। सफ़ेद चादर पर लेटे हुए आसमां को देखना, ऐसा लगता था मानो ये तारे, ये ज़मीं आसमां और हम, सब एक हो गए हैं। पत्तों की सरसराहट कानों में कुछ इस तरह से गूंजने लगी जैसे तुम्हारी आवाज़ हो। जाने किन ख्यालों में खोई कब आंख लग गई पता ही न चला। अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई। दरवाज़ा खोला, सामने तुम खड़े थे। मैं स्तब्ध सी वहीं खड़ी रह गई, तुम सीधा टैरेस पर गया, हां तुम जानते थे, इस वक़्त मैं यहीं बैठी होती हूं। एक कुर्सी जिस पर किताब रखी थी, उसे छोड़ तुम सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए। मैंने अपना कॉफ़ी मग उठाते हुए तुम से पूछा ' कॉफ़ी पियोगे?' तुमने ना में सिर हिलाया। मैंने फ़िर पूछा, इतनी रात को कैसे आना हुआ? तुमने एक सवालिया निगाह मुझपर धर दी, जैसे कहना चाहते हो ' क्या यहां आते वक़्त भी वक़्त का ध्यान रखना पड़ेगा?'। हमारी खामोशी को छोड़ वहां और क

स्वीकृति........

उम्र ठीक सोलह साल थी तब। तुम कुछ रोज़ के लिए अपने भैया के घर आए थे। वो घर जो मेरे घर की खिड़की से साफ़ नजर आता था। मैं तो सोलह की थी, पर तुम इक्कीस के। और तुम्हारा उम्र तुम्हारे नाक पर नज़र आता था, मैं तुम्हारे सामने आती तो तुम इस कदर इग्नोर करते जैसे मैं कोई छोटी सी बच्ची हूं। और मुझे लगता कि जिस उम्र का इंतज़ार लड़कियां बचपन से करती हैं, जो जवानी और बचपन की सबसे खूबसूरत दहलीज़ होती है, मैं उसपर खड़ी हूं। जाने कितने ही लोग इस खूबसरती को पाने को तरसते होंगे। और तुम, मुझे बच्ची समझते हो? जाने क्या क्या ठान कर तुम्हारे सामने आती, मुस्कुराती, तुम्हे रिझाने की कोशिशें करती। पर तुम किताबों में मशगूल रहते। आख़िर एक रोज़ मुझसे रहा ना गया, और मैंने कहा ' क्या तुम्हे मैं अच्छी नहीं लगती '?  तुमने कुछ उत्तर न दिया। मैं तुम्हारे सामने आ खड़ी हुई, और कहा, ' सुनो, मैंने सोच लिया है, मैं बड़ी होकर तुमसे ही शादी करूंगी, तुम मुझे बेहद पसंद हो, प्यार करती हूं मैं तुमसे।' तुम ख़ामोश नज़रों से मुझे देखते रहे, और कहा ' पर मुझे तुमसे प्यार नहीं ' तुम्हारी बात सुनकर मुझसे रहा ना गया

' प्यार 'ये शब्द मात्र तो नहीं। एक गहरा एहसास है।....

 बी ए इकोनॉमिक्स कर रहा था वो। साथ ही तस्वीरें बनाने का शौख था उसे। अक्सर उसको देखा था, परिंदों की तस्वीरें बनाते, अपने कैनवस को लिए घंटों उस बाग में बैठा रहता, जिसके ठीक सामने मेरा घर था। मेरा घर चौथी मंज़िल पर था, मैं अक्सर चाय की प्याली हाथ में लिए बरामदे पर बैठी उसे और उसकी एकाग्रता को तका करती थी। एक रोज़ मुझसे रहा ना गया और मैं दो प्याली चाय लिए उसके पास आ बैठी। उसने मुझे देखा पर कुछ इस तरह जैसे बरसों से जानता था वो मुझे। उसकी नज़रें बेहद अपनी सी लगी, पहली ही मुलाक़ात और बातें कुछ इस तरह बढ़ी हमारे बीच जैसे हम दोनों एक दूसरे को युगों से जानते हो। देखते देखते वो दिन भी आ गया जब बगैर एक दूसरे को देखे सुकून ना मिलता था। कभी मैं उस से मिलने चली जाती। कभी वो आ जाता। सुबह शाम दिन रात का ख्याल ना रहता। बस चाय की प्यालियां, उसके पेंटिंग्स और मेरा उसको तकते रहना। जाने क्या बात थी उसमें, उसकी आंखों पर मेरी नज़रें कुछ इस तरह टिकी रहती थी, जैसे सारा सुकून मुझे जीवन का वहीं से मिलता हो। बातों बातों में उसने एक रोज़ कहा ' दिशा, मुझे तुमसे प्यार हो गया है, बगैर तुम्हारे और नहीं रहा जाता। क

सागर के बीच से गुजरती उसकी वो गली.....

उसकी गली का रास्ता समंदर के ठीक बीचो बीच से निकलता था, एक गली बेहद संकिर्णं सी, मैं हल्के क़दमों से चलने की कोशिश करती हूं, लेकिन पांव ज़मी पर ना पर के लहरों पर परते जाते हैं, लहरें जो लगातार मुझे पीछे धकेलती जाती। मैं चलती जाती हूं, बिना रुके, हल्के हल्के कदम मेरे, सहमें सहमे कदम मेरे। आख़िर... उसके आंगन की वो पीली रौशनी वाली लालटेन पर मेरी नजर पड़ती है, होंठ अनायास ही मुस्कुराने लगते हैं, लालटेन के नीचे आराम कुर्सी पर बैठा वो शायद अपनी कोई मन पसंद किताब पढ़ रहा है। उसके चेहरे की मुस्कान साफ़ नज़र आ रही है मुझे। मैं उसकी ड्योढ़ी पर चुपचाप आकर बैठ जाती हूं। कि इस तरह उसे मुस्कुराते हुए देखना बेहद सुकून देता है। करवट बदली तो देखा सागर का नामो निशान ना था। दीवाल घड़ी पर चार बजे थे। सुबह का सपना सुना है सच होता है। ... निरुपमा (1.6.20)