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' प्यार 'ये शब्द मात्र तो नहीं। एक गहरा एहसास है।....

 बी ए इकोनॉमिक्स कर रहा था वो। साथ ही तस्वीरें बनाने का शौख था उसे। अक्सर उसको देखा था, परिंदों की तस्वीरें बनाते, अपने कैनवस को लिए घंटों उस बाग में बैठा रहता, जिसके ठीक सामने मेरा घर था। मेरा घर चौथी मंज़िल पर था, मैं अक्सर चाय की प्याली हाथ में लिए बरामदे पर बैठी उसे और उसकी एकाग्रता को तका करती थी। एक रोज़ मुझसे रहा ना गया और मैं दो प्याली चाय लिए उसके पास आ बैठी। उसने मुझे देखा पर कुछ इस तरह जैसे बरसों से जानता था वो मुझे। उसकी नज़रें बेहद अपनी सी लगी, पहली ही मुलाक़ात और बातें कुछ इस तरह बढ़ी हमारे बीच जैसे हम दोनों एक दूसरे को युगों से जानते हो। देखते देखते वो दिन भी आ गया जब बगैर एक दूसरे को देखे सुकून ना मिलता था। कभी मैं उस से मिलने चली जाती। कभी वो आ जाता। सुबह शाम दिन रात का ख्याल ना रहता। बस चाय की प्यालियां, उसके पेंटिंग्स और मेरा उसको तकते रहना। जाने क्या बात थी उसमें, उसकी आंखों पर मेरी नज़रें कुछ इस तरह टिकी रहती थी, जैसे सारा सुकून मुझे जीवन का वहीं से मिलता हो। बातों बातों में उसने एक रोज़ कहा ' दिशा, मुझे तुमसे प्यार हो गया है, बगैर तुम्हारे और नहीं रहा जाता। क्या तुम भी? इस से पहले की वो अपनी बात पूरी कर पाता। मैंने यूंही हंसते हंसते कहा, "पर मुझे तुमसे प्यार नहीं"। चारों ओर मेरी हंसी की गूंज थी, मैं उठकर रसोईघर में चली गई, सोचा कुछ मीठा बनाती हूं, वो तो यूं भी मेरे दिल की बात जानता होगा। लेकिन आज उस से कहूंगी कि कितना और किस हद तक चाहती हूं मैं उसे। पर मेरे लौटकर आने तक शायद वो इंतज़ार ना कर सका, उस रोज़ वो बिछड़ा कुछ इस तरह कि लौटकर फ़िर आया नहीं। उसके जाने के बाद मुझे महसूस हुआ, प्यार का होना सबकुछ नहीं। अपने एहसासों को शब्दों में पिरोना ज़रूरी है। प्यार का इज़हार ज़रूरी है।
निरुपमा(2.6.20)

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जाने दिया .......

कितने करते गिले शिकवे, सो बस अब जाने दिया।  उसको उसके लिए ख़ुद से दूर बस जाने दिया।  ख़ाक में मिलना था एक रोज़ इस मोहब्बत को, तो आज क्यूँ नही,  उसके लिए और कितना तड़पते, सो बस अब जाने दिया।  इश्क़ कभी था उसको, इस बात का यकीं क्यूँकर करें,  नफरतों की आंधी में सुलगना था सो सुलगते रहे,  उसकी नज़र के बेगानेपन को जिया है एक उम्र तलक,  इस दर्द को मैंने सहा, और सहन कितना करें!  ज़ख़्म अब नासूर बना, सो उसे जाने दिया।  क्यूँ पूछते हो हाल मेरा, सच कहना मुश्किल होगा,  झूठ और कितना कहें सो इस बात को भी जाने दिया।  निरुपमा(11.04.2024) 

शायद ख़ुद की तलाश में।

          आज फ़िर अकेलेपन ने घेर लिया मुझको, सांसों के लय में कोई समानता नहीं, इसके सुर-ताल बिगड़े हुए हैं। ये धड़कने मेरे कानों तक पहोचकर कोहराम मचाए हों जैसे। एक थकावट चारों ओर से घेरे हुए है, हाथ पैर हिलते नहीं, शरीर जैसे जड़ हुआ जाता है, नज़रें पहरों तक झुकी रहती हैं, एक टकटकी लगाए, पत्थर सी। मैं फ़िर से दौड़ना चाहती हूँ, हंसना चाहती हूँ, खिलखिलाना चाहती हूँ, पर अकेलापन मुझे और भी अधूरा किये जाता है। मालूम नहीं ये क्यूँ है! या शायद मालूम करना भी नहीं चाहती।               उम्र के हर दहलीज़ से गुज़र कर देखा, कई बार रस्ते बदलकर देखा, हर उम्र ने हर रस्ते ने मेरा हाथ थामकर कहा, थम जाओ ज़रा, ठहर कर देखो तो ज़रा ख़ुद को, क्या हाल कर लिया तुमने अपना। एक हल्की सी भीगी पलकों पर मुस्कान लिए, फ़िर से निकल पड़ती हूँ उस राह पर, जाने किसकी तलाश में, शायद ख़ुद की तलाश में।  निरुपमा (2/6/25) 

बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की, तो बोलो तुम क्या करोगे?

 बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की, तो बोलो तुम क्या करोगे? गुज़रे हुए लम्हों में जो बरसों की दफ्न यादें हैं, यादों में गहरे ज़ख्म हैं, ज़ख्मों पर परी परतें हैं। उन ज़ख्मों से परतों को गर हटा दूं, तो बोलो तुम क्या करोगे? बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की तो बोलो तुम क्या करोगे? तुमने मुझे छोड़ा था, मेरे सबसे बुरे वक्त में, जब तन्हाई बना साथी और आंसू बने श्रृंगार उस साथी उस श्रृंगार का तुमसे नाता जोड़ दूं, तो बोलो तुम क्या करोगे? बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की तो बोलो तुम क्या करोगे? निरुपमा (5.2.24)