उम्र ठीक सोलह साल थी तब। तुम कुछ रोज़ के लिए अपने भैया के घर आए थे। वो घर जो मेरे घर की खिड़की से साफ़ नजर आता था। मैं तो सोलह की थी, पर तुम इक्कीस के। और तुम्हारा उम्र तुम्हारे नाक पर नज़र आता था, मैं तुम्हारे सामने आती तो तुम इस कदर इग्नोर करते जैसे मैं कोई छोटी सी बच्ची हूं। और मुझे लगता कि जिस उम्र का इंतज़ार लड़कियां बचपन से करती हैं, जो जवानी और बचपन की सबसे खूबसूरत दहलीज़ होती है, मैं उसपर खड़ी हूं। जाने कितने ही लोग इस खूबसरती को पाने को तरसते होंगे। और तुम, मुझे बच्ची समझते हो? जाने क्या क्या ठान कर तुम्हारे सामने आती, मुस्कुराती, तुम्हे रिझाने की कोशिशें करती। पर तुम किताबों में मशगूल रहते। आख़िर एक रोज़ मुझसे रहा ना गया, और मैंने कहा ' क्या तुम्हे मैं अच्छी नहीं लगती '? तुमने कुछ उत्तर न दिया। मैं तुम्हारे सामने आ खड़ी हुई, और कहा, ' सुनो, मैंने सोच लिया है, मैं बड़ी होकर तुमसे ही शादी करूंगी, तुम मुझे बेहद पसंद हो, प्यार करती हूं मैं तुमसे।' तुम ख़ामोश नज़रों से मुझे देखते रहे, और कहा ' पर मुझे तुमसे प्यार नहीं ' तुम्हारी बात सुनकर मुझसे रहा ना गया, और मैंने तुम्हारी गोद में अपना सिर रख दिया, और बेरोक टोक मेरी आंखों से आंसू बह निकले' तुमने मेरे आंसू पोछे और कहा ' पहले बड़ी तो हो जाओ, फ़िर देखेंगे।' एक निश्छल सी मुस्कान पलभर में मेरे होठों पर फ़ैल गई, मैं हंसती खिलखिलाती लौट गई। सच... यूं तो इस बात को गुज़रे बरसों हो गए, पर आज भी वो पल जब याद आते हैं, खुशी की लहर ठीक उसी रोज़ की तरह मेरे ज़हन में दौड़ने लगती हैं। प्यार का होना, और जिस से प्यार हो, उसके द्वारा हमारे लिए स्वीकृति, इस से बड़ा धन कोई और है क्या?
निरुपमा(2.6.20)
निरुपमा(2.6.20)
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