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Showing posts from 2019

कुछ भी नहीं चाहिए...

कभी यूँ भी होता है , कि खुद को भी मालूम नहीं होता , के ये क्या हो रहा है! इल्म होता है तो बस इतना , कि कुछ ठीक नहीं...जो हो रहा है , आवाज़..खामोशी में तब्दील हो जाती है , पर अन्दर जैसे असंख्य रूद्र वीणाएं बज रही हो, वो मन है , दिल है , या धड़कन है कोई , छू नहीं पाती ठीक से , अपने खुद के वजूद को , एक शोर है , बस इस बात की, कि नहीं चाहिए , ये सब...वो सब ...कुछ भी नहीं चाहिए , या तो तुम...या तो कुछ भी नहीं... न शख्स कोई , न आवाज़ कोई , न ज़िन्दगी कोई... निरुपमा ( 30.12.19)

‘मैं तुमसे नहीं...अब भी उस से प्यार करता हूँ....”

उन नज़रों के बेगानेपन से दिल बेतहाशा फूट पड़ा , सामने पड़ी उसकी तस्वीर पर जैसे वक़्त की गर्द चढ़ गयी हो, वो सोचती रही , क्यूँकर उसने उन नज़रों पर  भरोसा  कर लिया , और सोचती रही , के देखते देखते किस तरह एक पूरा साल गुज़र गया, पर वो न लौटा... पर वो न लौटा , और लौटा भी तो कुछ यूँ के जैसे वो उसकी कुछ भी नहीं , कोई नहीं... तमाम उम्र की सारी दौलत जैसे एक पल में लुट गयी हो, जब उसने कहा ‘मैं तुमसे नहीं...अब भी उस से प्यार करता हूँ....” ....निरुपमा ( 16.12.19)

बस इतना ही बहोत है के तुझे मैं याद हूँ अबतक......

बस इतना ही बहोत है के तुझे मैं याद हूँ अबतक , मैंने कब चाहा , मैं तेरा जुनूं बन जाऊं , तेरी ज़िन्दगी तेरा सुकूं बन जाऊं , तेरी पलकें खुलें तो हर तरफ तू ढूंढें मुझे , अपने हर एक पल में मुझको तू पुकारा करे , तेरी सुबह में तेरी शामों में फ़िक्र मेरा हो , और ज़िक्र सिर्फ़ मेरा हो , बस इतना ही बहोत है के तुझे मैं याद हूँ अबतक , हर घड़ी दिल बेचैन सा रहता था , लोगों का साथ जैसे हर पल डसता था , अकेलेपन में अब सुकूं मिलने लगा था , माज़ी का ज़ख्म भी भरने लगा था , फ़िर भी न जाने क्यूँ , कदम बढ़ते नहीं थे , तुझे खोने के दर्द से उबरते नहीं थे , जैसे दिल पर कोई बोझ लिए बैठे रहे , तेरे बिन..... तेरे संग संग जीते रहे , एक रोज़ जाने किसकी आवाज़ मुझको आई थी , जैसे मेरे ही ‘मैं’ ने मुझको आवाज़ लगाईं थी , कुछ अनमने से ढंग से मेरा दर्द मुझसे टकरा गया , तू सामने आया और.... सब याद आ गया , तेरी नज़रें तेरी पलकें, तेरी आवाज़ में ज़िन्दगी पायी थी , एक तेरे जाने से मैंने पूरी ज़िन्दगी गवाई थी , आज फ़िर रूठी हुई दास्ताँ याद आने लगी , गुज़रे लम्हे की तपिश फ़िर से जलाने ल

मौन

बातें समझदारियों की , बातें बेवकूफ़ियों की , बातें उलझनों की , बातें सुलझनों की , बातें तन्हाइयों की, और कभी रुसवाइयों की , कितने सारे शब्द, कितनी सारी बातें, गुम हो जाते हैं यूँ, जैसे कभी थे ही नहीं , रह जाती है आवाज़ ज़हन में गूंजती कहीं , फ़िर कभी यूँ भी होता है कि कुछ नहीं रहता , कुछ भी नहीं , कोई नहीं , न सुनने वाला, न सुनाने वाला , न उलझ्नेवाला , न सुलझानेवाला, रह जाती है आखिर, एक खाली जगह , एक मौन और बस शान्ति... ....निरुपमा ( 5.9.19)

बियाबां

एक बहोत लम्बा सा रस्ता है, एक बहोत गहरी सी खाई है, एक गली है उबड़ खाबड़ सी, एक नदी है थोड़ी पगली सी, क्यूँ हवा यूँ आज मद्धम है, आँखों की बरसात भी कम है, क्या कहूँ वो कैसा सपना था , छूटा जो, बस वो ही अपना था , आज दिल क्यूँ सहमा सहमा है , क्या इसे कुछ और कहना है! लाज़मी होती नहीं हर एक वफ़ा, तोड़नी पर जाए गर अहद-ए-वफ़ा, टूट जाता है कोई फ़िर साथ में , सिसके फ़िर तन्हाईयाँ हर रात में | ख़ाब देखे थे कभी जो साथ में, उनका दामन छूटता लगता है क्यूँ , तुम जो अपने साथ थे सब ठीक था , अब बियाबां चारसू लगता है क्यूँ | निरुपमा ( 6.8.19)

चंद अशआर...

ना हाथ थामा, ना मुस्कुराए न पूछा दिल का हाल , दस्तूर-ए-इश्क था वो भी खामोश रहे , हम भी खामोश रहे | एक पूरी सदी गुज़री तुझतक पहोचने में, सामने आये तो कुछ भी कहना मुश्किल रहा | किस तरह छुप छुप कर हम उनका दीदार करते हैं , बातें किसी और से, नज़रे किसी और पर , और इश्क हम उनसे करते हैं | ....निरुपमा ( 4.8.19)

थोड़ा सा रूमानी...

धीमी धीमी सी सांस , हल्की हल्की आवाज़ , ज़रा सी बदन की आहट, मद्धम सी रौशनी , खुशबू तुम्हारी हवाओं में, गुलाबी से शाम के आँचल से , उगती हुई सी रात , रात की ठंडक, झीनी सी चादर, सौंधी सी बारिश, पत्तों की सरसराहट , और तुम...और मैं.. ...निरुपमा ( 3.8.19)

नील..

उसने किताब के पन्नो के बीच से गुलाब की कुछ सूखी पंखुड़िया निकाली , एक पुराना सिगरेट का डब्बा , एक रुमाल , चॉकलेट्स के कुछ पुराने रैपेर्स , एक कलम टूटा हुआ और...   और कुछ ख़त... इन सब को इकठ्ठा कर वो उस से मिलने गयी , और लिफाफा पकड़ाते हुए कहा , “अब तुम्हारा कुछ भी नहीं जो मेरे पास रह गया हो , अब जो है वो सीर्फ मेरा है” , कुछ देर ठहर कर फ़िर उसने कहा... “कितनी बेवकूफ थी न मैं , इन सब सामानों को इकठ्ठा करती रही, तुम्हारे प्यार की निशानी समझती रही , कि जबकि प्यार तुम्हे कभी था ही नहीं... प्यार.. तुम्हे कभी हुआ ही नहीं, खैर.. शिक़ायत तो अपनों से की जाती है , और तुम तो ग़ैर भी नहीं.. सुनो ..जब मेरी आँखें बंद होंगी , तब भी यदि तुम आये मेरी आखिरी झलक देखने , तो ख़याल रहे तुम्हारी आँखें नम न हो , जिस समाज जिस दुनिया के लिए तुमने मुझे छोड़ा, कहीं उनकी नज़र में तुम गुनहगार न बन जाओ.. ‘नील के पिता का नाम .. आज भी कोई नहीं जानता’ अमन अपलक आस्था को देखता रहा , आस्था भारी क़दमों से सुनसान रस्ते पर नज़रें झुकाए जा रही थी.... ...निरुपमा ( 17.6.19)

अनजानापन

कुछ भी बदलता तो नहीं , बस..कोई और भी होता है आसपास , जो रहता है वहीँ कहीं, जहां मैं होती हूँ , मेरे बाहर बाहर वो टहलता है , मुझे खुश करने के बहाने ढूंढता है वो,  चलते फ़िरते मेरी पलकों में झाँक लेता है , और ढूंढता है खुद को, पलकें गीली , और आँखें सूखी बंज़र ज़मीन सी , एक साथ रहकर भी , आस पास होकर भी , जब एक लम्बी सी खाई उसे हमारे दरमियाँ नज़र आती है , तो देख लेता है आइना , सोचता है , शायद... शायद ‘उसमें’ ही कोई कमी होगी , जो बरसों बाद भी हमारे बीच एक अनजानापन है , हम दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी हैं , मैंने कई बार चाहा , कि कह दूँ उसे , उसमें कोई कमी नहीं , कमी मुझमें है , कि मुझमें मेरा ‘मैं ’ नहीं , मेरा ‘मैं’ तो कहीं.. मैं तुममे छोड़ आई हूँ....बरसों पहले.. निरुपमा (25.1.20 )