कभी यूँ भी होता है,
कि खुद को भी मालूम नहीं होता,
के ये क्या हो रहा है!
इल्म होता है तो बस इतना,
कि कुछ ठीक नहीं...जो हो रहा है,
आवाज़..खामोशी में तब्दील हो जाती है,
पर अन्दर जैसे असंख्य रूद्र वीणाएं बज रही हो,
वो मन है, दिल है, या धड़कन है कोई,
छू नहीं पाती ठीक से, अपने खुद के वजूद को,
एक शोर है, बस इस बात की,
कि नहीं चाहिए,
ये सब...वो सब ...कुछ भी नहीं चाहिए,
या तो तुम...या तो कुछ भी नहीं...
न शख्स कोई, न आवाज़ कोई, न ज़िन्दगी
कोई...
निरुपमा (30.12.19)
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