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Showing posts from May, 2020

पैरहन.........

न टूटते कसम ही हैं, ना छूटता भरम ही है, न दर्द को मरहम ही है, इस दिल को बस भरम ही है। जो लुट गए तो क्या हुआ, सब छुट गए तो क्या हुआ, वो फ़िर कभी मिला नहीं, फ़िर भी कोई गिला नहीं, इन आंसुओं के बहने से, मेरी भला कैसी शिकस्त, मेरे वजूद पर तेरा, अब भी वो पैरहन ही है। निरुपमा(30.5.20)

याद आती तो होगी.....

ज़रा सा दर्द दिल में कहीं होता तो होगा, ज़रा सी याद आज भी तुझे आती तो होगी, ज़रा सी चोट पर तेरे... मेरा बेचैन होना, तू चाहे ना चाहे, हर बात पे मेरी याद आती तो होगी। दिल की धड़कन बढ़ती तो होगी मेरे नाम पर अब भी, "काश".. ये लफ़्ज़ दिल में नश्तर चुभोता तो होगा, हर गली हर सड़क से जब गुजरता तू होगा, मेरा ना होना, आज भी तुझे खलता तो होगा, सच बोल मेरी जान तुझे मेरी याद आती तो होगी। .... निरुपमा (29.5.20)

बारिश बूंदें और तुम.....

बारिश बूंदें और तुम, ये तीन हैं या एक कुछ समझ नहीं आता समझ आए भी क्या, कि तुम बूंदें और बारिश तीनों ही तो प्रेम हैं, प्रेम, जो प्रस्फुटित हुआ और रहा मुझमें, प्रेम, जिसकी भाषा तुम और परिभाषा  भी तुम, बारिश की बूंदे ऐसे छूती हैं, जेसे अनछुए ने छुआ हो सहसा ही तुम याद आते हो, याद आते हो... नहीं, याद तो नहीं आते, तुम यादों में नहीं रहते, बस चलते फिरते सांस लेते हो मेरे अंदर। निरुपमा (28.5.20)

और एक रोज़...

और एक रोज़... उसकी आवाज़ थम गयी , कदम जो लड़खड़ा गए थे ,   संभल गए , वो रोज़ रोज़ की बेतहाशा दौड़ , ख़त्म हुई , आरजुओं के उगने और दम तोड़ने का सिलसिला ख़त्म हुआ , शिकवे शिकायतें और हज़ारों गिले जाते रहे , ख़त्म हुई बारिशों की सौंधी खुशबूओं से जुड़ी बातें , मुस्कुराने का सिलसिला , रूठने मनाने का सिलसिला ख़त्म हुआ , ख़त्म हुआ दिल का वो सफ़र जो सूदूर उस तक पहोचता था , बस यूँ हुआ कि एक रिश्ता ख़त्म हुआ.. .....निरुपमा ( 27.5.20)

ज़ब्त.......

ज़ब्त किए जब भी अपने एहसास को, शोर करने भागने को दिल किया। बोलने की कोशिश जब भी की मगर, पांव जैसे जम गए, शब्द थम गए। थामने की कोशिश बेमानी रही, देखने को ख़ाली दरवाज़े मिले। यूं मेरा माज़ी मेरे संग संग चला, जिस तरह साया हो अपना ही कोई। और तुम्हे पाने की वो जो चाह थी, वो भी अब जाती रही, जाती रही। निरुपमा (25.5.20)

आलिंगन

कैसी मद्धम सी आवाज़ है। तुमने सुनी है? शब्द नहीं दूर दूर तक कहीं। बस दो आंखें, कभी निशब्द खड़ी एक दूसरे को तकती हुई। कभी हल्की सी मुस्कुराहट होठों के कोनों में फैली हुई। आलिंगन तुम्हारा, कभी झकझोरता भी है। कभी तुम्हारे इतने करीब लिए आता है, जैसे मैं तुम नहीं, बस तुम ही तुम हो, बस मैं ही मैं हूं। सुनो ये जो हल्की सी लट मेरी पलकों पर आ गई  है, इसे ज़रा हटा दो। और धर दो अपने दो होंठ मेरे होंठों पर, पलकें बंद ही रहने दो, बंद पलकों में जहां सारा नज़र आता है मुझे, बंद पलकों में बस एक तू ही नज़र आता है मुझे। .....निरुपमा(24.5.20)
इश्क़ कोई तकदीर नहीं जो फ़ैसले  करे, इसको इसकी औक़ात पर लाकर छोड़ दिया मैंने। ......निरुपमा (22.5.20)

कुछ रुका भी नहीं, कुछ गया भी नहीं।

कितने सारे शब्द, कितनी ही आवाज़ें, सुबह सवेरे उठते ही मेरे अंदर जैसे शोर मचाते हैं। हर शब्द एक दूसरे से इस तरह खेलती हैं, जैसे छोटे छोटे बच्चे किसी गेंद को दूर तक पैर मारते, लिए जाते हैं  किसी गोल कोर्ट में, मैं उस वक़्त वो ज़मीन हो जाती हूं, जिसपर ये खेल खेला जा रहा है, गेंद की आवाज़, बच्चों की बेतहाशा दौड़ने की आवाज़ें, ये सारी आवाज़ें मेरे गुज़रे कल से आती हैं, गुज़रा हुआ कल एक सपने सा लगता है, आंखें बंद हो या खुली अनगिनत चेहरे, अनगिनत आवाज़ें। मैं आज और आज से जुड़ी घटनोओं के बीच रहने की सांस लेने की कोशिश करती हूं, पर हर दिन ये कोशिश नाकाम होती है, मंज़िल की तलाश तो बहुत पहले छोड़ दी थी, पर रास्ते......अब नजर आते नहीं, आवाज़ क्यूं शोर से लगती हैं इन कानों में मन के अंदर सब उथल पुथल सा होता है। बंद और खुली आंखों में मेरे कोई फ़र्क नहीं, गुज़रा हुआ हर पल मेरे सामने इस तरह चलता है जैसे किसी पर्दे पर किरदार चलते हों। लगातार सारे किरदार मुझसे बातें करते हैं। हंसते हैं, हंसते हैं मेरी लाचारी पर। कहते हैं हम वहीं हैं, जिन्हें तुमने माना था कि ये सब हैं, और रहेंगे
बुजुर्गों को हँसते हुए देख बहुत अच्छा लगता है, कभी उनसे कोई छोटा सा सवाल करो, और उसका वो बहुत लंबा सा जवाब देते हैं, उस वक़्त उनके चेहरे को देखते हुए उनकी बातें सुनना कुछ अलग सा ही महसूस होता है, माँ कहती हैं ‘अब चलने में तकलीफ होती है, घुटने में दर्द रहता है, आँखों से दिखता भी कम है’ पर जब मुझे ऑफिस आने में देर हो रही होती है तो देखते देखते मेरे लिए टिफिन बना देती हैं, सीर्फ मेरी ख़ुशी के लिए वो चौथे महले तक चढ़ मेरे घर आ जाती है। बचपन में ही मेरी दादी नानी का साया मेरे सिर से उठ गया। इसलिए अनेकों कहानियां सुनाने का जिम्मा मां ने अपने सिर ले लिया। उनकी सुनाई हर कहानी आज भी ज़ुबानी याद है। जाने कितने जप, जाने कितनी पूजा, मां दिन रात आज भी जागकर करती है। जब भी उससे पूछा 'कुछ ला दूं तुम्हारे लिए मां' उसने अक्सर मेरे ही हाथ में कुछ पैसे थमा दिए और कहा 'तू अपने लिए कुछ नहीं करती, अपने लिए ले आ' । मां से जब भी पूछा, ‘माँ, बाबूजी से तुमको कोई शिकायत नहीं?’ तो वो कहती हैं, ‘तुम्हारे बाबूजी ने मुझे तुम जैसी प्यारी बेटियाँ दी, मुझे और क्या चाहिए था!’ कितनी अजीब बात है न, एक औरत

कमज़र्फ

इतना आसां था क्या हमें जुदा करना ? दोस्तों की दोस्ती , राहगीरों की मुस्कान , पड़ोसियों का प्यार , सब एक पल में हवा हो गए , देखने का मौका भी न मिला , और सारे एक दूसरे से जुदा हो गए , इतना आसां था क्या हमें जुदा करना ? सबको अपनी जान की परवाह हो गयी , एक पल में सारे दावे झूठे हुए , ये मानवता का कैसा चेहरा देखा! बस एक रोग, और सब विलग हो गए , बस एक भय, और सब मुख मोड़ गए , बच्चे , बुज़ुर्ग और हमउम्र , दोस्ती , वफ़ा और प्यार, सब धरे के धरे रह गए , लोग अपने घरों से भी किसी का हाल अब पूछते नहीं , व्हाट्सइएप, फेसबुक पर एक दूसरे को प्रोत्साहित करनेवाले , असल जीवन में सब एक दूसरे हतोत्साहित कर रहे हैं , यही थे वो रिश्ते ? यही थे वो लोग ? कुछ बंदिशें सरकार ने लगाईं हमारी, और कुछ खुद हमने.. सरकार ने कहा, हाथ मत मिलाना, किसी को छू लो तो झट हाथ धो लेना, छुआछूत का रोग है , छू लिया तो मर जाओगे. मर जाओगे ? मरने का भय हमारे अन्दर क्या पहले ही कम था? हाथ मिलाने को मना करते हो ? हम तो एक दूसरे को देख मुस्कुराएंगे भी नहीं , दूर से कोई आता न