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कुछ रुका भी नहीं, कुछ गया भी नहीं।

कितने सारे शब्द,
कितनी ही आवाज़ें,
सुबह सवेरे उठते ही
मेरे अंदर जैसे शोर मचाते हैं।
हर शब्द एक दूसरे से इस तरह खेलती हैं,
जैसे छोटे छोटे बच्चे किसी गेंद को दूर तक पैर मारते, लिए जाते हैं  किसी गोल कोर्ट में,
मैं उस वक़्त वो ज़मीन हो जाती हूं,
जिसपर ये खेल खेला जा रहा है,
गेंद की आवाज़,
बच्चों की बेतहाशा दौड़ने की आवाज़ें,
ये सारी आवाज़ें मेरे गुज़रे कल से आती हैं,
गुज़रा हुआ कल एक सपने सा लगता है,
आंखें बंद हो या खुली अनगिनत चेहरे,
अनगिनत आवाज़ें।
मैं आज और आज से जुड़ी घटनोओं के बीच रहने की सांस लेने की कोशिश करती हूं,
पर हर दिन ये कोशिश नाकाम होती है,
मंज़िल की तलाश तो बहुत पहले छोड़ दी थी,
पर रास्ते......अब नजर आते नहीं,
आवाज़ क्यूं शोर से लगती हैं इन कानों में
मन के अंदर सब उथल पुथल सा होता है।
बंद और खुली आंखों में मेरे कोई फ़र्क नहीं,
गुज़रा हुआ हर पल मेरे सामने इस तरह चलता है जैसे किसी पर्दे पर किरदार चलते हों।
लगातार सारे किरदार मुझसे बातें करते हैं।
हंसते हैं, हंसते हैं मेरी लाचारी पर।
कहते हैं हम वहीं हैं,
जिन्हें तुमने माना था कि ये सब हैं, और रहेंगे।
लो हम रह गए,
इस तरह रहे, कि तुम्हे सोने ना दें, जागने ना दें,
और हाथ बढ़ाकर छूना चाहो तो छूने भी ना दें,
सब के बीच रहकर भी एक अकेलापन,
हंसते हंसते आंखों की कोरों में आंसू,
ये कैसा साया है जो हर पल हर घड़ी चौबीस घंटे साथ साथ चलता है।
कुछ रुका भी नहीं, कुछ गया भी नहीं।
निरुपमा(12.5.20)

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