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Showing posts from 2020

आंसू..,..

टपके थे बारिशों के बीच, कुछ बूंद मेरे गालों पर, ज़रा सा चख के देखा था, नमकीन सा तेरा प्यार, मेरी पलकों से हो के आया था।। निरुपमा(31.8.20)

कुछ भी नहीं ठहरता..,

 कुछ भी नहीं ठहरता, न दिन न रात, न हवा न पानी, न मौसम न बरसात, न खुशबू न रंग, न दर्द न घुटन, न प्यार न नफ़रत, न शिकवे न गिले, न ग़म न उदासी, न मौन न चीख, और जान...... हम भी कहां ठहरेंगे न तुम न हम। निरुपमा(27.8.20)

प्रेम

रोकने से कुछ ठहरता है क्या! जिस तरह बाँध को तोड़कर नदी की धारा , उसे पार करने के लिए , अपने सागर से मिलने के लिए , व्याकुल रहती है.. ठीक उसी तरह, प्रेम में दोनों ही विवश होते हैं , प्रेम को बाँधने की कोशिश करना, असहज , असंभव प्रयास है... निरुपमा ( 26.8.20)

तू..........

 इक तेरी गली को छोड़कर हर गली से मैं गुज़रती हूं। हर गली का आख़िरी मकां तेरा होता हैं। तेरी याद को छोड़कर, हर ख़याल पर मैं चलती हूं, हर ख़याल का आख़िर वो ख़याल तेरा होता है। तुझे भुलाकर हर सुबह बहुत दूर दौड़ आती हूं। हर दौड़ का आख़िरी पड़ाव तू ही होता है। निरुपमा (24.8.20)

सच.....

 एक चेहरे की तलाश ने कितने चेहरों से रू - ब- रू करा दिया, बस एक गलतफहमी, और सारा सच सामने आ गया, वो फरेब- ए- यार था, दिलकश थी जिसकी हर अदा, उस फरेब- ए- यार का, हर सच सामने आ गया। कितने सजदे, कितने वादे, थे मेरे दिल ने किए, इस नासमझ नादां का, हर एक सच सामने आ गया। कोई नहीं मैं उसकी, वो था नहीं कोई मेरा, जिसके थे सब, उन सबों में कोई न थी मेरी जगह, एक बात पर हर बात का सच सामने आ गया। बस एक गलतफहमी, और सारा सच सामने आ गया।। निरुपमा (20.8.20)

मुफ़लिसी.......

हमें मुफ़लिसी ने क्या क्या सिखा दिया है, तुम्हे भी शायद हमने भूला दिया है। ग़म- ए- दिल रखा पड़ा था पहलू में, उसे भी थपकी दे कर सुला दिया है। निरुपमा(19.8.20)

प्यास

जाने ये कैसी तलाश है जो कभी ख़त्म नहीं होती, जैसे उम्र भर की प्यास है... जो कभी ख़त्म नहीं होती। ..... निरुपमा(18.8.20)

ठहरा सा है.....

 उसने ख़ुद ही ख़ुद को मुझसे दूर कर लिया, कि वो जानता था, ठीक क्या ग़लत है क्या, कि वो जानता था, वो एहसास जो उसके लिए अनमोल है, वो सबके लिए बेमानी है, कि वो जानता था, प्यार अमर है और मन छलावा, उसने खुद ही अपने दोनो हाथों से, अपने मन का गला घोट दिया, एक हल्की सी मुस्कान के साथ उसने कुछ यूं किनारा किया, कि वो जाकर भी मुझमें ठहरा सा है, जैसे पुराना कोई ज़ख्म आज भी कुछ गहरा सा है। निरुपमा (16.8.20)

इश्क़

 जब छूट जाए दामन अपने प्यार का,  जब भूल जाए रस्ता अपने यार का, जब कहने को हज़ार बात ना रहें, जब दिल दिमाग आपने बस में ना रहे, जब थकती हुईं आंखें पथ से ना हटे, जब मौसम- ए- बरसात असर ना करे, जब दिल की बात दिल में रखनी सीख लें, जब अपना हाल खुद से भी छिपाना हो, जब औरों की कोई बात भली ना लगे, जब उसकी याद दिल से ज़रा ना टले, जब रात दिन बोझ सा लगने लगे, जब बार बार तन्हाई तुम्हे खीच ले, जब सांस सांस बोझ सी लगने लगे, तब जानना तुम अपने ख़ुद से दूर हो, तब जानना तुम इश्क़ में मजबूर हो, तब जानना कोई तुम्हारा है कहीं, जिसके बिना ये खूबसूरत ज़िन्दगी, बेवजह है,बेमानी है, बेनाम है, तब जानना कि इश्क़ ही ख़ुदा भी है, बिन इश्क़ जीना बस कोई हराम है। निरुपमा(16.8.20)

ये तो मज़ाक था....

 इन पलकों के पीछे आंसू छिपा लेते हैं, कोई जान नही पाता, हम यूं मुस्कुरा लेते हैं। हर बात पर कहते हैं, ये तो मज़ाक था, हाल- ए- दिल अक्सर... कुछ यूं छिपा लेते है। निरुपमा(14.8.20)

बूँदें बारिश की, और तुम्हारा ख्याल….

  तेज़ हवाओं के झोकों ने मेरे सिर से दुपट्टा उड़ा दिया , तुमने हाथ बढ़ाकर उन्हें थाम लिया , मैंने सिर झुकाया , शर्म से नज़रें नीची हुईं, तुमने हौले से दुपट्टा मेरे सिर पर डाल दिया , और मुस्कुराकर बस इतना ही कहा, इस कदर मेरे ख्यालों में न खोया करो , कि खुद की खबर न रहे.... _____________ तुम्हारी खुशबू, मेरे आँचल में आज भी मौजूद है. निरुपमा ( 25.7.20)      

वो अपना हो चला था....

उसी के सामने हमने अपनी दास्तां कह दी, कि जिसके सामने जाने से भी कतराया करते थे। वो बैठा था मेरे ही रू-ब-रू मुझको ही तकता था, कि जिसके रास्ते से अक्सर हम हट जाया करते थे। ये कैसी कशमकश ने घर किया था अपने दर्मियां, वो अपना हो चला था जिसको हम झुठलाया करते थे। निरुपमा (23.7.20)

एक शेर...

टहलती रहती हूं अक्सर माज़ी के उसी ड्योढ़ी पर, कि जिसकी याद भी आंखों में अब धुंधली सी बची है।  निरुपमा(23.7.20)

झिझक....

बात तो दिल की थी, सारे जहां के चर्चे हुए। ऐसी भी क्या झिझक के, सामने आते ही, हर बार मसला बदल दिया। निरुपमा(21.7.20)

इश्क़

इक ख़ामोश सी सदा आती है,  उसकी दो निगाहें अब भी मुझे बुलाती है, तस्वीर हटा दी, हर ताल्लुक़ तोड़ दिए, कैसे मेरे अंदर वो अब भी गुनगुनाती है! इश्क़ की जाने ये कैसी इंतहा है, दर्द उसे हो तो आंख मेरी भर आती है। मेरे मन के इस अन्तर्द्वन्द पे कहीं, वो मासूम नज़रों से यूंही मुस्कुराती है। देखते हैं अंजाम - ए- इश्क क्या हो, अपनी धड़कन तो आगाज़ ही में मचल जाती है। निरुपमा (21.7.20)

वहाँ अब रह भी क्या गया था?

वहाँ अब रह भी क्या गया था? और तो कुछ भी नहीं कुछ दीवार, कुछ खिड़कियाँ , कुछ दरवाज़े अधखुले से, कुछ गुज़री रातों की यादें , और हाँ हमारी पहली और आख़िरी मुलाक़ात के चंद दफ्न हो चुके बासी लम्हें.. वहाँ अब रह भी क्या गया था! और तो कुछ भी नहीं ...निरुपमा

मोड़.......

उस एक मोड़ से, जहां से अपने रास्ते एक होते, ठीक उसी मोड़ पर हमदोनो जुदा हुए, उसकी बेपरवाही और भी बढ़ती गई, मेरा जुनून - ए- इश्क़ धीमे धीमे दम तोड़ता गया, वो जाते क़दमों को और फ़िर लौटा न सका, मैं गुज़रते वक़्त को तस्वीर सी तकती रही। निरुपमा (13.7.20)

तुझसे मुझ तक, मुझसे तुझ तक....

कुछ बातें... तुझसे मुझ तक, मुझसे तुझ तक, अनवरत बहती रहती हैं, धाराएं तय कौन करता है?  कोई नहीं। बातों को शब्द नहीं मिलते, आवाज़ नहीं मिलती, मिलती है कभी मुस्कान,  कभी अकेलापन, कभी उदासी। उदासी की दिशा तय कौन करता है, बहती रहती हैं, तुझसे मुझ तक मुझसे तुझ तक। निरुपमा (10.7.20)

अलविदा...

बात तो कुछ भी न हुई, न कुछ कहा, न सुना, स्मृतियों के ताने बाने को सुलझाते अब काफी वक्त हो चला था, ना प्यार, ना उलझन, ना दर्द, ना शिकायतें, पर उसकी नज़र उठी, कुछ पूछने के लिए, मेरी पलकें झुकी, कि वो सब कुछ तो जानता था। मैंने एक और बार उसकी ओर देखा,  वो दूर पड़ी दीवार घड़ी को तक रहा था,  जो बताती थी, अब जाने का वक़्त हुआ, मेरी पलकें झुकी और एक गहरी सांस के साथ उसको अलविदा कहा। .... निरुपमा(8.7.20)

बस यूंही

मैंने तीली से जलाकर बुझाया, बुझाकर जलाया, ढूंढ़ा उन नज़रों को अपने रू - ब- रू, और पाया, उजाले की चमक में वो खो गया, पास आ गया,  जब अंधेरों की महफ़िल लगी।

एक बड़ा फ़ैसला.....

एक बड़ा फ़ैसला, तुम पर छोड़कर मैंने सोचा, कि अब कोई फ़ैसला न करना होगा, तुम्हारे किये फ़ैसले के लिए जीवन भर तुम्हे दोष देती।रही, सोचती रही, कि कितनी आसानी से तुमने किनारा कर लिया। गुज़रते वक़्त की उड़ान को पर कहां कोई रोक पाया है, वक़्त गुज़रता गया, और फ़ैसलों की घड़ी बार बार आती गई, वक़्त और हालात के मुताबिक मुझे फ़ैसले लेने पड़े, तब जाना, फ़ैसला लेना आसान नहीं होता। तुम भी तो चले होगे चाकू की तेज़ धार पर, जब तुमने कहा, अब बस सब खत्म हुआ, बस यहीं तक था साथ हमारा। .... निरुपमा (28.6.20)

ख्वाहिश

इन पलकों के ठीक पीछे जो चलता है वो क्या है! रस्ते पर चलती कारें, आसमान में उड़ते पंछी, आते जाते लोग, कोई नज़र ही नहीं आते, इन पलकों के ठीक पीछे एक चेहरा होता है। उस से जुड़ी अनगिनत यादें, जो साथ जिए, अनेकों ख्वाहिशें, जिनको जीने का मौका ना मिला, तुम्हे इस जीवन के अलग अलग क्षणों में लाकर देखा, तुम्हारे आसपास खुद को रखकर देखा, कभी अपने घर में तुमको, कभी तुम्हारे घर में खुद को रखकर देखा, स्कूल से कॉलेज की पढ़ाई तक साथ कर के देखी, हर रोज़ होने वाली छोटी बड़ी घटनाओं में तुम्हारे साथ चलकर देखा, और पाया, आज भी इस दिल की अधूरी ख्वाहिश तुम ही हो, आज भी इस अधूरे जीवन की पूर्णता तुमसे ही है। .... निरुपमा(26.6.20)

ज़रूरत??

जैसे कोई दीवार सी बना दी तुमने हमारे बीच, एक लकीर खीची और कह दिया, तुम इस पार नहीं आ सकती, मैं हूं, पर तुम्हारा नहीं, दिखूंगी, पर छूना नहीं, तुम आवाज़ देना जब भी ज़रूरत हो। ज़रूरत! ये ज़रूरत क्या होती है? क्या वो होती है, जो इस पल है, क्या वो होती है, जो हर पल है? वो रिश्ता ही क्या, जहां आवाज़ देनी पड़े, वो रिश्ता ही क्या जहां हम एक दूसरे की ख़ामोशी ना समझें। तुम थे, तो बहुत कुछ था कहने को, तुम गए, तो जैसे सारे शब्द गुम हुए। मैं ख़ामोश सी कोई तस्वीर बन गई, जैसे अधूरी सी नींद में कोई ख़्वाब टूट जाए .... निरुपमा (18.6.20)

ये ज़िन्दगी क्यूं कांच की कोई ख़्वाब सी लगे है।।

क्यूं रोती है ये ज़मीं, क्यूं रोता आसमां है, सितारों के जहान का, सवेरा वो कहां है। क्यूं आज दिल की बस्तियां, वीरान सी लगे है, ये चैन मन का दिन और रात, क्यूं लूटे ये जहां है, कोई जिए कोई मरे, क्या मायने रखे है? या मौत की ये बात भी, बस बात तक रहे हैं? हर हादसा यूं दिल पे क्यूं, कोई तीर सा चलाए, उस हादसे की बात क्यूं, दिल भूल नहीं पाए है। क्या रिश्ते हैं, कैसा जहान, सब दूर ही खड़े हैं, ये ज़िन्दगी क्यूं कांच की कोई ख़्वाब सी लगे है।। निरुपमा (17.6.20)

प्यार भाषा है ना पहचान।

प्यार भाषा है, ना पहचान, ना किसी संबोधन का नाम। ये जात नहीं, धर्म नहीं, दीन- ओ- इमां भी नहीं। ना बयां है, ना छिपा है। प्यार को मापा तौला, समझा या समझाया नहीं जा सकता। कोई उदाहरण नहीं, कोई पर्याप्त शब्द नहीं, कोई प्रप्या- अप्राप्य वस्तु नहीं। ये धर्म है न संस्कार है, ये जोगी का जोग नहीं, जोगन की माला नहीं पाप पुण्य से परे, धरती गगन से परे, ये मुझसे तुझसे नहीं। तुझमें मुझमें नहीं। न पलकों में पलते सपने, न आंखों से गिरे आंसू है। ये राधा की पुकार नहीं, श्याम की बंसी नहीं। ये वचन नहीं, कथन नहीं। प्यार ना तोड़ता है , ना जोड़ता है। न गिरता न संभलता है। ये गलियों से गुजरकर मेहबूब के घर का रास्ता नहीं । ये ममता नहीं, लोड़ी नहीं। ये साज श्रृंगार भी नहीं। गीत नहीं संगीत नहीं। ना आस है, ना उम्मीद है। ये बच्चे की किलकारी नहीं , ये कोई सपना नहीं, कोई हकीकत भी नहीं। ...... निरुपमा (15.6.20)

दास्तां......

और उसने एक रोज़ अपनी दास्तां लिखी। उसकी दास्तां का एक एक कोना आरती की मौजूदगी का आभास दिलाता था। लोगों को ज़्यादा वक़्त न लगा ये पहचानने में कि इसकी बर्बादी का सबब कोई और नहीं, आरती है। आरती को रंगे हाथों पकड़ा गया। उसके गीरेबां में, कुछ शेर थे, जो उसने सब से छिपकर लिखे थे। कमरे में कुछ तस्वीरें आड़ी तिरछी लगी हुई थी, जिस से ये साफ़ होता था, कि आरती आज भी शेखर से बेइंतहां प्यार करती है। उसकी हथेली में एक लकीर भी पाई गई, जिसे देखकर ऐसा लगता था, जैसे कुदरत जिस लकीर को बनाना भूल गया था, उसे आरती ने खुद ही खंजर की नोक से बनाया है, उस लकीर में शेखर का नाम लिखा था। आरती को समाज के ख़िलाफ़ इश्क़ करने और एक इंसान को ख़ुदा मानने के जुर्म के लिए गुनेहगार ठहराया गया। फ़ैसला यूं हुआ कि उसे पूरी ज़िन्दगी अकेले जीने के लिए छोड़ दिया जाए। .... निरुपमा (11.6.20)

कुछ सदी के लिए।

बातें कभी खत्म नहीं होती, बस बदलती रहती है। रिश्ते कभी खत्म नहीं होते,  वो भी रूप बदलते रहते हैं। खत्म होने जैसा कुछ नहीं, बस दिखने बंद हो जाते हैं, कुछ रोज़ के लिए कुछ सदी के लिए। ......निरुपमा (10.6.20)

सन्नाटा.......

जब किसी रिश्ते में आवाज़ कम, और सन्नाटा ज़्यादा फ़ैलता दिखे, तब निश्चित समझें कि, जल्द आवाज़ वाली जगह भी सन्नाटा ले लेगा। निरुपमा(4.6.20)

स्वर्ग.....

वो और बाबूजी दोनो पहले साथ ही काम किया करते थे। मां कहती थी, स्कूल कॉलेज भी दोनो ने साथ ही पूरी की। मैं कोई आठ बरस की थी जब वो घर आए थे, उन दिनों मैं अक्सर बहुत व्यस्त रहा करती थी। स्कूल से आने के बाद कुछ ही देर में दोबारा घर से निकल जाती, सामने वाली ज़मीन पर किसी का घर बन रहा था, वहां बहुत सी रेत पड़ी होती थी। उनमें से एक एक कर सीपियां चुनना कोई आसान काम था क्या? उन्हें चुनकर छत पर लाती। वहां मैंने एक घरौंदा बना रखा था, उसके अंदर मेरी गुड़िया रहती थी, उसके श्रृंगार का सामान भी खुद अपने हाथ से तैयार करती थी। एक रोज़ इन्हीं व्यस्तताओं के बीच सुना के बाबूजी के दोस्त आए हैं। वो जमशेदपुर में रहते थे। मां को अक्सर कहते सुना था, जमशेदपुर से आसमान बहुत नज़दीक पड़ता है। स्वर्ग जाना मेरा तो सपना हो चला था। स्वर्ग जाकर अपनी गुड़िया के लिए परियों वाले कपड़े लाने थे। बस जब बाबूजी के वो दोस्त आए, तो मैंने मन ही मन निश्चित कर लिया, कि इस बार किसी की नहीं सुनूंगी, और उनके साथ जमशेदपुर चली जाऊंगी। मैंने दूसरी ही सुबह उनसे पूछा भी था, ' कक्का, मैं आपके साथ चल सकती हूं ना? उन्होंने ' हां '

सपना कुछ अधूरा सा......

रात कोई दस साढ़े दस का वक़्त था। मैं कॉफ़ी का मग लिए टैरेस पर बैठी, दूर आसमानों में टिमटिमाते तारों को देख रही थी, आज चांद पूरा नज़र आया था, शायद पूर्णमासी होगी। ऐसी ही जाने कितनी पूनम की रातें हमने साथ टिमटिमाते तारों को देखते हुए गुज़ारी थी। सफ़ेद चादर पर लेटे हुए आसमां को देखना, ऐसा लगता था मानो ये तारे, ये ज़मीं आसमां और हम, सब एक हो गए हैं। पत्तों की सरसराहट कानों में कुछ इस तरह से गूंजने लगी जैसे तुम्हारी आवाज़ हो। जाने किन ख्यालों में खोई कब आंख लग गई पता ही न चला। अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई। दरवाज़ा खोला, सामने तुम खड़े थे। मैं स्तब्ध सी वहीं खड़ी रह गई, तुम सीधा टैरेस पर गया, हां तुम जानते थे, इस वक़्त मैं यहीं बैठी होती हूं। एक कुर्सी जिस पर किताब रखी थी, उसे छोड़ तुम सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए। मैंने अपना कॉफ़ी मग उठाते हुए तुम से पूछा ' कॉफ़ी पियोगे?' तुमने ना में सिर हिलाया। मैंने फ़िर पूछा, इतनी रात को कैसे आना हुआ? तुमने एक सवालिया निगाह मुझपर धर दी, जैसे कहना चाहते हो ' क्या यहां आते वक़्त भी वक़्त का ध्यान रखना पड़ेगा?'। हमारी खामोशी को छोड़ वहां और क

स्वीकृति........

उम्र ठीक सोलह साल थी तब। तुम कुछ रोज़ के लिए अपने भैया के घर आए थे। वो घर जो मेरे घर की खिड़की से साफ़ नजर आता था। मैं तो सोलह की थी, पर तुम इक्कीस के। और तुम्हारा उम्र तुम्हारे नाक पर नज़र आता था, मैं तुम्हारे सामने आती तो तुम इस कदर इग्नोर करते जैसे मैं कोई छोटी सी बच्ची हूं। और मुझे लगता कि जिस उम्र का इंतज़ार लड़कियां बचपन से करती हैं, जो जवानी और बचपन की सबसे खूबसूरत दहलीज़ होती है, मैं उसपर खड़ी हूं। जाने कितने ही लोग इस खूबसरती को पाने को तरसते होंगे। और तुम, मुझे बच्ची समझते हो? जाने क्या क्या ठान कर तुम्हारे सामने आती, मुस्कुराती, तुम्हे रिझाने की कोशिशें करती। पर तुम किताबों में मशगूल रहते। आख़िर एक रोज़ मुझसे रहा ना गया, और मैंने कहा ' क्या तुम्हे मैं अच्छी नहीं लगती '?  तुमने कुछ उत्तर न दिया। मैं तुम्हारे सामने आ खड़ी हुई, और कहा, ' सुनो, मैंने सोच लिया है, मैं बड़ी होकर तुमसे ही शादी करूंगी, तुम मुझे बेहद पसंद हो, प्यार करती हूं मैं तुमसे।' तुम ख़ामोश नज़रों से मुझे देखते रहे, और कहा ' पर मुझे तुमसे प्यार नहीं ' तुम्हारी बात सुनकर मुझसे रहा ना गया

' प्यार 'ये शब्द मात्र तो नहीं। एक गहरा एहसास है।....

 बी ए इकोनॉमिक्स कर रहा था वो। साथ ही तस्वीरें बनाने का शौख था उसे। अक्सर उसको देखा था, परिंदों की तस्वीरें बनाते, अपने कैनवस को लिए घंटों उस बाग में बैठा रहता, जिसके ठीक सामने मेरा घर था। मेरा घर चौथी मंज़िल पर था, मैं अक्सर चाय की प्याली हाथ में लिए बरामदे पर बैठी उसे और उसकी एकाग्रता को तका करती थी। एक रोज़ मुझसे रहा ना गया और मैं दो प्याली चाय लिए उसके पास आ बैठी। उसने मुझे देखा पर कुछ इस तरह जैसे बरसों से जानता था वो मुझे। उसकी नज़रें बेहद अपनी सी लगी, पहली ही मुलाक़ात और बातें कुछ इस तरह बढ़ी हमारे बीच जैसे हम दोनों एक दूसरे को युगों से जानते हो। देखते देखते वो दिन भी आ गया जब बगैर एक दूसरे को देखे सुकून ना मिलता था। कभी मैं उस से मिलने चली जाती। कभी वो आ जाता। सुबह शाम दिन रात का ख्याल ना रहता। बस चाय की प्यालियां, उसके पेंटिंग्स और मेरा उसको तकते रहना। जाने क्या बात थी उसमें, उसकी आंखों पर मेरी नज़रें कुछ इस तरह टिकी रहती थी, जैसे सारा सुकून मुझे जीवन का वहीं से मिलता हो। बातों बातों में उसने एक रोज़ कहा ' दिशा, मुझे तुमसे प्यार हो गया है, बगैर तुम्हारे और नहीं रहा जाता। क

सागर के बीच से गुजरती उसकी वो गली.....

उसकी गली का रास्ता समंदर के ठीक बीचो बीच से निकलता था, एक गली बेहद संकिर्णं सी, मैं हल्के क़दमों से चलने की कोशिश करती हूं, लेकिन पांव ज़मी पर ना पर के लहरों पर परते जाते हैं, लहरें जो लगातार मुझे पीछे धकेलती जाती। मैं चलती जाती हूं, बिना रुके, हल्के हल्के कदम मेरे, सहमें सहमे कदम मेरे। आख़िर... उसके आंगन की वो पीली रौशनी वाली लालटेन पर मेरी नजर पड़ती है, होंठ अनायास ही मुस्कुराने लगते हैं, लालटेन के नीचे आराम कुर्सी पर बैठा वो शायद अपनी कोई मन पसंद किताब पढ़ रहा है। उसके चेहरे की मुस्कान साफ़ नज़र आ रही है मुझे। मैं उसकी ड्योढ़ी पर चुपचाप आकर बैठ जाती हूं। कि इस तरह उसे मुस्कुराते हुए देखना बेहद सुकून देता है। करवट बदली तो देखा सागर का नामो निशान ना था। दीवाल घड़ी पर चार बजे थे। सुबह का सपना सुना है सच होता है। ... निरुपमा (1.6.20)

पैरहन.........

न टूटते कसम ही हैं, ना छूटता भरम ही है, न दर्द को मरहम ही है, इस दिल को बस भरम ही है। जो लुट गए तो क्या हुआ, सब छुट गए तो क्या हुआ, वो फ़िर कभी मिला नहीं, फ़िर भी कोई गिला नहीं, इन आंसुओं के बहने से, मेरी भला कैसी शिकस्त, मेरे वजूद पर तेरा, अब भी वो पैरहन ही है। निरुपमा(30.5.20)

याद आती तो होगी.....

ज़रा सा दर्द दिल में कहीं होता तो होगा, ज़रा सी याद आज भी तुझे आती तो होगी, ज़रा सी चोट पर तेरे... मेरा बेचैन होना, तू चाहे ना चाहे, हर बात पे मेरी याद आती तो होगी। दिल की धड़कन बढ़ती तो होगी मेरे नाम पर अब भी, "काश".. ये लफ़्ज़ दिल में नश्तर चुभोता तो होगा, हर गली हर सड़क से जब गुजरता तू होगा, मेरा ना होना, आज भी तुझे खलता तो होगा, सच बोल मेरी जान तुझे मेरी याद आती तो होगी। .... निरुपमा (29.5.20)

बारिश बूंदें और तुम.....

बारिश बूंदें और तुम, ये तीन हैं या एक कुछ समझ नहीं आता समझ आए भी क्या, कि तुम बूंदें और बारिश तीनों ही तो प्रेम हैं, प्रेम, जो प्रस्फुटित हुआ और रहा मुझमें, प्रेम, जिसकी भाषा तुम और परिभाषा  भी तुम, बारिश की बूंदे ऐसे छूती हैं, जेसे अनछुए ने छुआ हो सहसा ही तुम याद आते हो, याद आते हो... नहीं, याद तो नहीं आते, तुम यादों में नहीं रहते, बस चलते फिरते सांस लेते हो मेरे अंदर। निरुपमा (28.5.20)

और एक रोज़...

और एक रोज़... उसकी आवाज़ थम गयी , कदम जो लड़खड़ा गए थे ,   संभल गए , वो रोज़ रोज़ की बेतहाशा दौड़ , ख़त्म हुई , आरजुओं के उगने और दम तोड़ने का सिलसिला ख़त्म हुआ , शिकवे शिकायतें और हज़ारों गिले जाते रहे , ख़त्म हुई बारिशों की सौंधी खुशबूओं से जुड़ी बातें , मुस्कुराने का सिलसिला , रूठने मनाने का सिलसिला ख़त्म हुआ , ख़त्म हुआ दिल का वो सफ़र जो सूदूर उस तक पहोचता था , बस यूँ हुआ कि एक रिश्ता ख़त्म हुआ.. .....निरुपमा ( 27.5.20)

ज़ब्त.......

ज़ब्त किए जब भी अपने एहसास को, शोर करने भागने को दिल किया। बोलने की कोशिश जब भी की मगर, पांव जैसे जम गए, शब्द थम गए। थामने की कोशिश बेमानी रही, देखने को ख़ाली दरवाज़े मिले। यूं मेरा माज़ी मेरे संग संग चला, जिस तरह साया हो अपना ही कोई। और तुम्हे पाने की वो जो चाह थी, वो भी अब जाती रही, जाती रही। निरुपमा (25.5.20)

आलिंगन

कैसी मद्धम सी आवाज़ है। तुमने सुनी है? शब्द नहीं दूर दूर तक कहीं। बस दो आंखें, कभी निशब्द खड़ी एक दूसरे को तकती हुई। कभी हल्की सी मुस्कुराहट होठों के कोनों में फैली हुई। आलिंगन तुम्हारा, कभी झकझोरता भी है। कभी तुम्हारे इतने करीब लिए आता है, जैसे मैं तुम नहीं, बस तुम ही तुम हो, बस मैं ही मैं हूं। सुनो ये जो हल्की सी लट मेरी पलकों पर आ गई  है, इसे ज़रा हटा दो। और धर दो अपने दो होंठ मेरे होंठों पर, पलकें बंद ही रहने दो, बंद पलकों में जहां सारा नज़र आता है मुझे, बंद पलकों में बस एक तू ही नज़र आता है मुझे। .....निरुपमा(24.5.20)
इश्क़ कोई तकदीर नहीं जो फ़ैसले  करे, इसको इसकी औक़ात पर लाकर छोड़ दिया मैंने। ......निरुपमा (22.5.20)

कुछ रुका भी नहीं, कुछ गया भी नहीं।

कितने सारे शब्द, कितनी ही आवाज़ें, सुबह सवेरे उठते ही मेरे अंदर जैसे शोर मचाते हैं। हर शब्द एक दूसरे से इस तरह खेलती हैं, जैसे छोटे छोटे बच्चे किसी गेंद को दूर तक पैर मारते, लिए जाते हैं  किसी गोल कोर्ट में, मैं उस वक़्त वो ज़मीन हो जाती हूं, जिसपर ये खेल खेला जा रहा है, गेंद की आवाज़, बच्चों की बेतहाशा दौड़ने की आवाज़ें, ये सारी आवाज़ें मेरे गुज़रे कल से आती हैं, गुज़रा हुआ कल एक सपने सा लगता है, आंखें बंद हो या खुली अनगिनत चेहरे, अनगिनत आवाज़ें। मैं आज और आज से जुड़ी घटनोओं के बीच रहने की सांस लेने की कोशिश करती हूं, पर हर दिन ये कोशिश नाकाम होती है, मंज़िल की तलाश तो बहुत पहले छोड़ दी थी, पर रास्ते......अब नजर आते नहीं, आवाज़ क्यूं शोर से लगती हैं इन कानों में मन के अंदर सब उथल पुथल सा होता है। बंद और खुली आंखों में मेरे कोई फ़र्क नहीं, गुज़रा हुआ हर पल मेरे सामने इस तरह चलता है जैसे किसी पर्दे पर किरदार चलते हों। लगातार सारे किरदार मुझसे बातें करते हैं। हंसते हैं, हंसते हैं मेरी लाचारी पर। कहते हैं हम वहीं हैं, जिन्हें तुमने माना था कि ये सब हैं, और रहेंगे
बुजुर्गों को हँसते हुए देख बहुत अच्छा लगता है, कभी उनसे कोई छोटा सा सवाल करो, और उसका वो बहुत लंबा सा जवाब देते हैं, उस वक़्त उनके चेहरे को देखते हुए उनकी बातें सुनना कुछ अलग सा ही महसूस होता है, माँ कहती हैं ‘अब चलने में तकलीफ होती है, घुटने में दर्द रहता है, आँखों से दिखता भी कम है’ पर जब मुझे ऑफिस आने में देर हो रही होती है तो देखते देखते मेरे लिए टिफिन बना देती हैं, सीर्फ मेरी ख़ुशी के लिए वो चौथे महले तक चढ़ मेरे घर आ जाती है। बचपन में ही मेरी दादी नानी का साया मेरे सिर से उठ गया। इसलिए अनेकों कहानियां सुनाने का जिम्मा मां ने अपने सिर ले लिया। उनकी सुनाई हर कहानी आज भी ज़ुबानी याद है। जाने कितने जप, जाने कितनी पूजा, मां दिन रात आज भी जागकर करती है। जब भी उससे पूछा 'कुछ ला दूं तुम्हारे लिए मां' उसने अक्सर मेरे ही हाथ में कुछ पैसे थमा दिए और कहा 'तू अपने लिए कुछ नहीं करती, अपने लिए ले आ' । मां से जब भी पूछा, ‘माँ, बाबूजी से तुमको कोई शिकायत नहीं?’ तो वो कहती हैं, ‘तुम्हारे बाबूजी ने मुझे तुम जैसी प्यारी बेटियाँ दी, मुझे और क्या चाहिए था!’ कितनी अजीब बात है न, एक औरत

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इतना आसां था क्या हमें जुदा करना ? दोस्तों की दोस्ती , राहगीरों की मुस्कान , पड़ोसियों का प्यार , सब एक पल में हवा हो गए , देखने का मौका भी न मिला , और सारे एक दूसरे से जुदा हो गए , इतना आसां था क्या हमें जुदा करना ? सबको अपनी जान की परवाह हो गयी , एक पल में सारे दावे झूठे हुए , ये मानवता का कैसा चेहरा देखा! बस एक रोग, और सब विलग हो गए , बस एक भय, और सब मुख मोड़ गए , बच्चे , बुज़ुर्ग और हमउम्र , दोस्ती , वफ़ा और प्यार, सब धरे के धरे रह गए , लोग अपने घरों से भी किसी का हाल अब पूछते नहीं , व्हाट्सइएप, फेसबुक पर एक दूसरे को प्रोत्साहित करनेवाले , असल जीवन में सब एक दूसरे हतोत्साहित कर रहे हैं , यही थे वो रिश्ते ? यही थे वो लोग ? कुछ बंदिशें सरकार ने लगाईं हमारी, और कुछ खुद हमने.. सरकार ने कहा, हाथ मत मिलाना, किसी को छू लो तो झट हाथ धो लेना, छुआछूत का रोग है , छू लिया तो मर जाओगे. मर जाओगे ? मरने का भय हमारे अन्दर क्या पहले ही कम था? हाथ मिलाने को मना करते हो ? हम तो एक दूसरे को देख मुस्कुराएंगे भी नहीं , दूर से कोई आता न

मेरे शब्दों से तुम कोई रिश्ता न बुन लेना।

मेरे शब्दों से तुम कोई रिश्ता न बुन लेना। कि मेरे शब्द, शब्द मात्र हैं। इनमें छिपा कोई अर्थ नही, न प्रेम न  अलगाव, न पीड़ा, न सबलता न दुर्बलता, न छिपे हैं मेरे आंसू, न छिपी है कोई ज्वाला ही, ये शब्द, शब्द मात्र हैं। कि दरकार नहीं किसी की इन शब्दों को, शब्द मेरे कुछ ऐसे हैं, जिनमें बचे कोई एहसास नहीं। ये कविता नहीं, ये कोई कहानी नहीं। न किसी नारी की पीड़ा है, न प्रेम न वियोग। ये शब्द मात्र शब्द हैं, इनका होना मेरे होने का प्रमाण नहीं। इनका न होना मेरे जीवन का अंत नहीं। ये शब्द मात्र शब्द हैं, मेरे शब्दों से तुम कोई रिश्ता न बुन लेना। निरुपमा(24.4.20)

शायद प्यार

न सुकून अब कहीं, न चैन - ओ- क़रार कहीं, हुआ न हो इस दिल को किसी से कोई प्यार कहीं। गमों की साज़िश थी, मेरा लुटता गया क़रार कहीं, उन्हीं की पलकों तले नींद आए एक बार कहीं। मेरा ये होश अब और मेरे साथ क्या रहता, गया ये होश मेरा उनके साथ साथ कहीं। वो तेरे साथ हैं, अब हैं, या के वो हैं भी नहीं, सिसकती रात ने पूछा है बार बार यही। वो जो आएं तो इस बार जाने पाए ना, मेरे मैं ने मुझे कहा है बार बार यही। निरुपमा (23.4.20)

तुम्हे अब छोड़ देते हैं....

चलो कुछ रोज़ के लिए तुम्हे अब छोड़ देते हैं कुछ रोज़ तुम हमसे यूँही दूर दूर रहो , कुछ रोज़ नज़रों में बेगानापन रहे , कुछ रोज़ बेताल्लुकी में दिन कटें, कुछ रोज़ बेबसी में आंसू बहें , चलो कुछ रोज़ के लिए तुम्हे अब छोड़ देते हैं कुछ रोज़ दिन को दिन , रात को रात समझो , कुछ रोज़ हमें भूलने की कोशिश करो , कुछ रोज़ तुम जानो के हमारी ज़ात बेईमान थी , कुछ रोज़ के लिए तुमसे हर ताल्लुक तोड़ देते हैं , चलो कुछ रोज़ के लिए तुम्हे अब छोड़ देते हैं और करते हैं इंतज़ार कि कभी वो दिन भी आएगा , दर्द मुझे होगी , और दिल तेरा घबराएगा , देर शाम रात ढले , तू चैन कहाँ पाएगा , उस पल तक हर भरम हम तोड़ देते हैं , चलो कुछ रोज़ के लिए तुम्हे अब छोड़ देते हैं पर इतना याद रखना , के वक्त गुज़र न पाएगा , वक़्त बेवक्त हर शख्स तुझे मेरी ही याद दिलाएगा , है यकीं इस दफ़े तू फ़िर से लौट आएगा , फिलहाल के लिए ये सब यहीं कहीं छोड़ देते हैं , चलो हम कुछ रोज़ के लिए तुम्हे अब छोड़ देते हैं .....निरुपमा ( 25.2.20)

ख़याल ....

कोई तीर कोई नश्तर तो नहीं जो चुभ रहा है दिल में यूँ , मेरा ख़याल ही होगा , तू एक ख्याल ही तो है , ...निरुपमा ( 20.2.20)

खत....

बस यूँही लिख लिखकर मिटा देने की आदत रही  अपनी , न जाने कितनी खतें आज भी इस सीने में दफ्न हैं. ...निरुपमा ( 19.2.20)

आज फ़िर ....

एक गहरी उदासी के कोख से जन्मी तेरी याद फ़िर से , आज फ़िर दर्द दिल में उभरने लगा है , आज फ़िर अपने साए से हम घबरा रहे हैं... निरुपमा ( 14.2.20)

जो तुम न होते तो कहो किस से गिले होते...

मुमकिन नहीं है वक़्त के रुख को यूँ मोड़ना , वरना तो क्यूँकर आपसे यूँ फ़ासले होते , तस्वीर जैसे अनगिनत परतों से घिर गयीं, वरना तो क्यूँकर पस्त अपने हौसले होते , तुझसे किये वादों की शमा जलती रही है , वरना तो क्यूँ न टूटकर हम रो दिए होते , सुनते थे इश्क तो कई जन्मों का साथ है , मिलकर बिछड़ने और फ़िर मिलने की बात है , क़िस्मत में दिल का टूटना पहले से लिखा था , जो तुम न होते तो कहो किस से गिले होते... ...निरुपमा ( 14.01.20)