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सपना कुछ अधूरा सा......

रात कोई दस साढ़े दस का वक़्त था। मैं कॉफ़ी का मग लिए टैरेस पर बैठी, दूर आसमानों में टिमटिमाते तारों को देख रही थी, आज चांद पूरा नज़र आया था, शायद पूर्णमासी होगी। ऐसी ही जाने कितनी पूनम की रातें हमने साथ टिमटिमाते तारों को देखते हुए गुज़ारी थी। सफ़ेद चादर पर लेटे हुए आसमां को देखना, ऐसा लगता था मानो ये तारे, ये ज़मीं आसमां और हम, सब एक हो गए हैं। पत्तों की सरसराहट कानों में कुछ इस तरह से गूंजने लगी जैसे तुम्हारी आवाज़ हो। जाने किन ख्यालों में खोई कब आंख लग गई पता ही न चला। अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई। दरवाज़ा खोला, सामने तुम खड़े थे। मैं स्तब्ध सी वहीं खड़ी रह गई, तुम सीधा टैरेस पर गया, हां तुम जानते थे, इस वक़्त मैं यहीं बैठी होती हूं। एक कुर्सी जिस पर किताब रखी थी, उसे छोड़ तुम सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए। मैंने अपना कॉफ़ी मग उठाते हुए तुम से पूछा ' कॉफ़ी पियोगे?' तुमने ना में सिर हिलाया। मैंने फ़िर पूछा, इतनी रात को कैसे आना हुआ? तुमने एक सवालिया निगाह मुझपर धर दी, जैसे कहना चाहते हो ' क्या यहां आते वक़्त भी वक़्त का ध्यान रखना पड़ेगा?'। हमारी खामोशी को छोड़ वहां और कुछ न था। पर कुछ अलग सा था इस बार, ऐसा लगा तुम कहना चाहते हो, ' आस्था, क्या मैं वापस आ सकता हूं? क्या हम फ़िर से?' मैंने सोचा, यदि तुम ऐसा कहो तो  मैं क्या कहूंगी, शायद तुम्हारे क़दमों पर सर रख दूं, तुमसे लिपट कर रोने लगूं। शायद मैं तुमसे कहूं, कि इतने बरस मेरे कैसे गुज़रे काश उसकी तुम्हे ख़बर होती नील, सुनो अब जो आए हो तो वापस ना जाना'। शायद और कुछ भी न कह पाऊं। मैं तुम्हारी ओर देखती हूं, तुम अब भी ख़ामोश हो, और अचानक ही उठकर चल देते हो। तुम्हें रोकने के लिए जैसे ही मैं तुम्हारे पीछे दौड़ती हूं, मेरे कदम लड़खड़ा जाते हैं। अचानक आंख खुल जाती है, और देखती हूं कॉफ़ी ठंडी हो चुकी है, तारे धीरे धीरे धुंधले हो चले हैं। सपने भी कभी अधूरे छूट जाया करते हैं।
........ निरुपमा (3.6.20)

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