Skip to main content

सागर के बीच से गुजरती उसकी वो गली.....

उसकी गली का रास्ता समंदर के ठीक बीचो बीच से निकलता था, एक गली बेहद संकिर्णं सी, मैं हल्के क़दमों से चलने की कोशिश करती हूं, लेकिन पांव ज़मी पर ना पर के लहरों पर परते जाते हैं, लहरें जो लगातार मुझे पीछे धकेलती जाती। मैं चलती जाती हूं, बिना रुके, हल्के हल्के कदम मेरे, सहमें सहमे कदम मेरे। आख़िर... उसके आंगन की वो पीली रौशनी वाली लालटेन पर मेरी नजर पड़ती है, होंठ अनायास ही मुस्कुराने लगते हैं, लालटेन के नीचे आराम कुर्सी पर बैठा वो शायद अपनी कोई मन पसंद किताब पढ़ रहा है। उसके चेहरे की मुस्कान साफ़ नज़र आ रही है मुझे। मैं उसकी ड्योढ़ी पर चुपचाप आकर बैठ जाती हूं। कि इस तरह उसे मुस्कुराते हुए देखना बेहद सुकून देता है।

करवट बदली तो देखा सागर का नामो निशान ना था। दीवाल घड़ी पर चार बजे थे। सुबह का सपना सुना है सच होता है।
... निरुपमा (1.6.20)

Comments

Popular posts from this blog

जाने दिया .......

कितने करते गिले शिकवे, सो बस अब जाने दिया।  उसको उसके लिए ख़ुद से दूर बस जाने दिया।  ख़ाक में मिलना था एक रोज़ इस मोहब्बत को, तो आज क्यूँ नही,  उसके लिए और कितना तड़पते, सो बस अब जाने दिया।  इश्क़ कभी था उसको, इस बात का यकीं क्यूँकर करें,  नफरतों की आंधी में सुलगना था सो सुलगते रहे,  उसकी नज़र के बेगानेपन को जिया है एक उम्र तलक,  इस दर्द को मैंने सहा, और सहन कितना करें!  ज़ख़्म अब नासूर बना, सो उसे जाने दिया।  क्यूँ पूछते हो हाल मेरा, सच कहना मुश्किल होगा,  झूठ और कितना कहें सो इस बात को भी जाने दिया।  निरुपमा(11.04.2024) 

शायद ख़ुद की तलाश में।

          आज फ़िर अकेलेपन ने घेर लिया मुझको, सांसों के लय में कोई समानता नहीं, इसके सुर-ताल बिगड़े हुए हैं। ये धड़कने मेरे कानों तक पहोचकर कोहराम मचाए हों जैसे। एक थकावट चारों ओर से घेरे हुए है, हाथ पैर हिलते नहीं, शरीर जैसे जड़ हुआ जाता है, नज़रें पहरों तक झुकी रहती हैं, एक टकटकी लगाए, पत्थर सी। मैं फ़िर से दौड़ना चाहती हूँ, हंसना चाहती हूँ, खिलखिलाना चाहती हूँ, पर अकेलापन मुझे और भी अधूरा किये जाता है। मालूम नहीं ये क्यूँ है! या शायद मालूम करना भी नहीं चाहती।               उम्र के हर दहलीज़ से गुज़र कर देखा, कई बार रस्ते बदलकर देखा, हर उम्र ने हर रस्ते ने मेरा हाथ थामकर कहा, थम जाओ ज़रा, ठहर कर देखो तो ज़रा ख़ुद को, क्या हाल कर लिया तुमने अपना। एक हल्की सी भीगी पलकों पर मुस्कान लिए, फ़िर से निकल पड़ती हूँ उस राह पर, जाने किसकी तलाश में, शायद ख़ुद की तलाश में।  निरुपमा (2/6/25) 

बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की, तो बोलो तुम क्या करोगे?

 बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की, तो बोलो तुम क्या करोगे? गुज़रे हुए लम्हों में जो बरसों की दफ्न यादें हैं, यादों में गहरे ज़ख्म हैं, ज़ख्मों पर परी परतें हैं। उन ज़ख्मों से परतों को गर हटा दूं, तो बोलो तुम क्या करोगे? बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की तो बोलो तुम क्या करोगे? तुमने मुझे छोड़ा था, मेरे सबसे बुरे वक्त में, जब तन्हाई बना साथी और आंसू बने श्रृंगार उस साथी उस श्रृंगार का तुमसे नाता जोड़ दूं, तो बोलो तुम क्या करोगे? बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की तो बोलो तुम क्या करोगे? निरुपमा (5.2.24)