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स्वर्ग.....

वो और बाबूजी दोनो पहले साथ ही काम किया करते थे। मां कहती थी, स्कूल कॉलेज भी दोनो ने साथ ही पूरी की। मैं कोई आठ बरस की थी जब वो घर आए थे, उन दिनों मैं अक्सर बहुत व्यस्त रहा करती थी। स्कूल से आने के बाद कुछ ही देर में दोबारा घर से निकल जाती, सामने वाली ज़मीन पर किसी का घर बन रहा था, वहां बहुत सी रेत पड़ी होती थी। उनमें से एक एक कर सीपियां चुनना कोई आसान काम था क्या? उन्हें चुनकर छत पर लाती। वहां मैंने एक घरौंदा बना रखा था, उसके अंदर मेरी गुड़िया रहती थी, उसके श्रृंगार का सामान भी खुद अपने हाथ से तैयार करती थी। एक रोज़ इन्हीं व्यस्तताओं के बीच सुना के बाबूजी के दोस्त आए हैं। वो जमशेदपुर में रहते थे। मां को अक्सर कहते सुना था, जमशेदपुर से आसमान बहुत नज़दीक पड़ता है। स्वर्ग जाना मेरा तो सपना हो चला था। स्वर्ग जाकर अपनी गुड़िया के लिए परियों वाले कपड़े लाने थे। बस जब बाबूजी के वो दोस्त आए, तो मैंने मन ही मन निश्चित कर लिया, कि इस बार किसी की नहीं सुनूंगी, और उनके साथ जमशेदपुर चली जाऊंगी। मैंने दूसरी ही सुबह उनसे पूछा भी था, ' कक्का, मैं आपके साथ चल सकती हूं ना? उन्होंने ' हां ' में उत्तर दिया। मैंने उनकी हां को लेकर अनगिनत सपने देख डाले, किस किस रंग के कपड़े में मेरी गुड़िया कैसी लगेगी। और हां ये भी निश्चय किया था कि इस बार उसकी शादी करवा दूंगी, वहीं से एक सुंदर सा गुड्डा लेकर आऊंगी, मेरे बाबूजी जैसा सुंदर और नेक। सोचा कुछ दिनों के लिए अपने व्यस्त दिनचर्या से ज़रा सी छुट्टी ली जाए। सीपियां आकर चुन लूंगी। जाने इन्हीं विचारों में गुम कब आंख लग गई पता ही ना चला।


सुबह सवेरे मेरे रंग बदले हुए थे, जो आमतौर पर कई बार आवाज़ देने पर मेरी जागने की आदत थी, उस रोज़ सबके जागने से पहले नहाकर तैयार हो गई, और स्कूल बैग से सारी किताबें निकाल दी, दो जोड़ी कपड़े साथ रखकर, दरवाज़े के पीछे छिपकर खड़ी हो गई। मुझे आज भी याद है, स्कूल जाने का जब वक़्त हुआ सब मुझे घर में यहां वहां ढूंढ़ रहे थे , मैं सबकुछ चुपचाप सुनती रही, पर बाहर ना आईं। और जब आने का सोचा तो देखा काक्का जा रहे हैं, मैंने सोचा वो मेरे बारे में पूछेंगे, पर उन्होंने पूछा नहीं बस जाते वक़्त मां से कहा गुड़िया को प्यार देना। उनके जाने के बाद जाने कितनी देर तक मैं उसी दरवाज़े के पीछे खड़ी रही और सोचती रही, क्या मैं स्वर्ग से अपनी गुड़िया के कपड़े और उसके लिए गुड्डा कभी न ला पाऊंगी!
...... निरुपमा(3.6.20)

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जाने दिया .......

कितने करते गिले शिकवे, सो बस अब जाने दिया।  उसको उसके लिए ख़ुद से दूर बस जाने दिया।  ख़ाक में मिलना था एक रोज़ इस मोहब्बत को, तो आज क्यूँ नही,  उसके लिए और कितना तड़पते, सो बस अब जाने दिया।  इश्क़ कभी था उसको, इस बात का यकीं क्यूँकर करें,  नफरतों की आंधी में सुलगना था सो सुलगते रहे,  उसकी नज़र के बेगानेपन को जिया है एक उम्र तलक,  इस दर्द को मैंने सहा, और सहन कितना करें!  ज़ख़्म अब नासूर बना, सो उसे जाने दिया।  क्यूँ पूछते हो हाल मेरा, सच कहना मुश्किल होगा,  झूठ और कितना कहें सो इस बात को भी जाने दिया।  निरुपमा(11.04.2024) 

शायद ख़ुद की तलाश में।

          आज फ़िर अकेलेपन ने घेर लिया मुझको, सांसों के लय में कोई समानता नहीं, इसके सुर-ताल बिगड़े हुए हैं। ये धड़कने मेरे कानों तक पहोचकर कोहराम मचाए हों जैसे। एक थकावट चारों ओर से घेरे हुए है, हाथ पैर हिलते नहीं, शरीर जैसे जड़ हुआ जाता है, नज़रें पहरों तक झुकी रहती हैं, एक टकटकी लगाए, पत्थर सी। मैं फ़िर से दौड़ना चाहती हूँ, हंसना चाहती हूँ, खिलखिलाना चाहती हूँ, पर अकेलापन मुझे और भी अधूरा किये जाता है। मालूम नहीं ये क्यूँ है! या शायद मालूम करना भी नहीं चाहती।               उम्र के हर दहलीज़ से गुज़र कर देखा, कई बार रस्ते बदलकर देखा, हर उम्र ने हर रस्ते ने मेरा हाथ थामकर कहा, थम जाओ ज़रा, ठहर कर देखो तो ज़रा ख़ुद को, क्या हाल कर लिया तुमने अपना। एक हल्की सी भीगी पलकों पर मुस्कान लिए, फ़िर से निकल पड़ती हूँ उस राह पर, जाने किसकी तलाश में, शायद ख़ुद की तलाश में।  निरुपमा (2/6/25) 

तुम पर ही रख छोड़ी है....

प्यार मुझको हुआ तुमसे,  तुमको मुझसे हो न हो,  ये बात तुमपर रख छोड़ी है।  वक़्त मिलता रहा, तुम भी मिलते रहे,  वक़्त जाता रहा, अब तुम मिलो न मिलो,  ये बात  भी तुमपर रख छोड़ी है।  सेंकड़ों की राह में, एक राह तुमसे मिली,  मैं अनवरत चल रही थी और बस ठहर गयी।  तुम भी ठहर जाओ, ये मैं तुमसे कैसे कहूँ,  अब तुम ठहरो न ठहरो  ये बात भी तुमपर रख छोड़ी है।  गुज़रे सालों में इस दिल में ढेरों शिक़ायते रही, शिक़ायतों को जानने पर बस एक तुम्हारा ही इख़्तियार रहा।  अब चाहो तो दूर दूर रहो, तुम कुछ सुनो न सुनो,  ये बात भी तुमपर रख छोड़ी है।  दिल ने सलीके से बुने थे ख़ाब अपने, हर ख़ाब की तामील पर, इक तुम्हारा ही इख़्तियार रहा।  मैं अब भी तुम्हारी हूँ, तुम मेरे हो के नही,  ये बात भी, बस तुम पर ही रख छोड़ी है।  निरुपमा (15.2.24)