जैसे कोई दीवार सी बना दी तुमने हमारे बीच,
एक लकीर खीची और कह दिया,
तुम इस पार नहीं आ सकती,
मैं हूं, पर तुम्हारा नहीं,
दिखूंगी, पर छूना नहीं,
तुम आवाज़ देना जब भी ज़रूरत हो।
ज़रूरत!
ये ज़रूरत क्या होती है?
क्या वो होती है, जो इस पल है,
क्या वो होती है, जो हर पल है?
वो रिश्ता ही क्या, जहां आवाज़ देनी पड़े,
वो रिश्ता ही क्या जहां हम एक दूसरे की ख़ामोशी ना समझें।
तुम थे, तो बहुत कुछ था कहने को,
तुम गए, तो जैसे सारे शब्द गुम हुए।
मैं ख़ामोश सी कोई तस्वीर बन गई,
जैसे अधूरी सी नींद में कोई ख़्वाब टूट जाए
.... निरुपमा (18.6.20)
एक लकीर खीची और कह दिया,
तुम इस पार नहीं आ सकती,
मैं हूं, पर तुम्हारा नहीं,
दिखूंगी, पर छूना नहीं,
तुम आवाज़ देना जब भी ज़रूरत हो।
ज़रूरत!
ये ज़रूरत क्या होती है?
क्या वो होती है, जो इस पल है,
क्या वो होती है, जो हर पल है?
वो रिश्ता ही क्या, जहां आवाज़ देनी पड़े,
वो रिश्ता ही क्या जहां हम एक दूसरे की ख़ामोशी ना समझें।
तुम थे, तो बहुत कुछ था कहने को,
तुम गए, तो जैसे सारे शब्द गुम हुए।
मैं ख़ामोश सी कोई तस्वीर बन गई,
जैसे अधूरी सी नींद में कोई ख़्वाब टूट जाए
.... निरुपमा (18.6.20)
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