इक ख़ामोश सी सदा आती है,
उसकी दो निगाहें अब भी मुझे बुलाती है,
तस्वीर हटा दी, हर ताल्लुक़ तोड़ दिए,
कैसे मेरे अंदर वो अब भी गुनगुनाती है!
इश्क़ की जाने ये कैसी इंतहा है,
दर्द उसे हो तो आंख मेरी भर आती है।
मेरे मन के इस अन्तर्द्वन्द पे कहीं,
वो मासूम नज़रों से यूंही मुस्कुराती है।
देखते हैं अंजाम - ए- इश्क क्या हो,
अपनी धड़कन तो आगाज़ ही में मचल जाती है।
निरुपमा (21.7.20)
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