वहाँ अब रह भी क्या गया था?
और तो कुछ भी नहीं
कुछ दीवार, कुछ खिड़कियाँ,
कुछ दरवाज़े अधखुले से,
कुछ गुज़री रातों की यादें,
और हाँ हमारी पहली और आख़िरी मुलाक़ात के
चंद दफ्न हो चुके बासी लम्हें..
वहाँ अब रह भी क्या गया था!
और तो कुछ भी नहीं
...निरुपमा
ज़िन्दगी के सफहों को पलटते हुए, कुछ ख़ास पल जैसे हाथ पकड़कर रोक लेना चाहते हैं!
वहाँ अब रह भी क्या गया था?
और तो कुछ भी नहीं
कुछ दीवार, कुछ खिड़कियाँ,
कुछ दरवाज़े अधखुले से,
कुछ गुज़री रातों की यादें,
और हाँ हमारी पहली और आख़िरी मुलाक़ात के
चंद दफ्न हो चुके बासी लम्हें..
वहाँ अब रह भी क्या गया था!
और तो कुछ भी नहीं
...निरुपमा
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