Skip to main content

कमज़र्फ


इतना आसां था क्या हमें जुदा करना?
दोस्तों की दोस्ती,
राहगीरों की मुस्कान,
पड़ोसियों का प्यार,
सब एक पल में हवा हो गए,
देखने का मौका भी न मिला,
और सारे एक दूसरे से जुदा हो गए,
इतना आसां था क्या हमें जुदा करना?
सबको अपनी जान की परवाह हो गयी,
एक पल में सारे दावे झूठे हुए,
ये मानवता का कैसा चेहरा देखा!
बस एक रोग,
और सब विलग हो गए,
बस एक भय,
और सब मुख मोड़ गए,
बच्चे, बुज़ुर्ग और हमउम्र,
दोस्ती, वफ़ा और प्यार,
सब धरे के धरे रह गए,
लोग अपने घरों से भी किसी का हाल अब पूछते नहीं,
व्हाट्सइएप, फेसबुक पर एक दूसरे को प्रोत्साहित करनेवाले,
असल जीवन में सब एक दूसरे हतोत्साहित कर रहे हैं,
यही थे वो रिश्ते? यही थे वो लोग?
कुछ बंदिशें सरकार ने लगाईं हमारी,
और कुछ खुद हमने..
सरकार ने कहा, हाथ मत मिलाना,
किसी को छू लो तो झट हाथ धो लेना,
छुआछूत का रोग है, छू लिया तो मर जाओगे.
मर जाओगे?
मरने का भय हमारे अन्दर क्या पहले ही कम था?
हाथ मिलाने को मना करते हो?
हम तो एक दूसरे को देख मुस्कुराएंगे भी नहीं,
दूर से कोई आता नज़र आ जाए,
तो दरवाज़े बंद कर लेंगे,
खुशियों का पल हो तो क्या,
मिठाई उसने छू ली तो खाएंगे भी नहीं,
तुम क्या रोकते हो हमें,
हम तो इतने कमज़र्फ हैं,
कि किसी की मैय्यत भी उठी तो हम जाएंगे ही नहीं...
निरुपमा (8.5.20)

Comments

Popular posts from this blog

जाने दिया .......

कितने करते गिले शिकवे, सो बस अब जाने दिया।  उसको उसके लिए ख़ुद से दूर बस जाने दिया।  ख़ाक में मिलना था एक रोज़ इस मोहब्बत को, तो आज क्यूँ नही,  उसके लिए और कितना तड़पते, सो बस अब जाने दिया।  इश्क़ कभी था उसको, इस बात का यकीं क्यूँकर करें,  नफरतों की आंधी में सुलगना था सो सुलगते रहे,  उसकी नज़र के बेगानेपन को जिया है एक उम्र तलक,  इस दर्द को मैंने सहा, और सहन कितना करें!  ज़ख़्म अब नासूर बना, सो उसे जाने दिया।  क्यूँ पूछते हो हाल मेरा, सच कहना मुश्किल होगा,  झूठ और कितना कहें सो इस बात को भी जाने दिया।  निरुपमा(11.04.2024) 

शायद ख़ुद की तलाश में।

          आज फ़िर अकेलेपन ने घेर लिया मुझको, सांसों के लय में कोई समानता नहीं, इसके सुर-ताल बिगड़े हुए हैं। ये धड़कने मेरे कानों तक पहोचकर कोहराम मचाए हों जैसे। एक थकावट चारों ओर से घेरे हुए है, हाथ पैर हिलते नहीं, शरीर जैसे जड़ हुआ जाता है, नज़रें पहरों तक झुकी रहती हैं, एक टकटकी लगाए, पत्थर सी। मैं फ़िर से दौड़ना चाहती हूँ, हंसना चाहती हूँ, खिलखिलाना चाहती हूँ, पर अकेलापन मुझे और भी अधूरा किये जाता है। मालूम नहीं ये क्यूँ है! या शायद मालूम करना भी नहीं चाहती।               उम्र के हर दहलीज़ से गुज़र कर देखा, कई बार रस्ते बदलकर देखा, हर उम्र ने हर रस्ते ने मेरा हाथ थामकर कहा, थम जाओ ज़रा, ठहर कर देखो तो ज़रा ख़ुद को, क्या हाल कर लिया तुमने अपना। एक हल्की सी भीगी पलकों पर मुस्कान लिए, फ़िर से निकल पड़ती हूँ उस राह पर, जाने किसकी तलाश में, शायद ख़ुद की तलाश में।  निरुपमा (2/6/25) 

बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की, तो बोलो तुम क्या करोगे?

 बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की, तो बोलो तुम क्या करोगे? गुज़रे हुए लम्हों में जो बरसों की दफ्न यादें हैं, यादों में गहरे ज़ख्म हैं, ज़ख्मों पर परी परतें हैं। उन ज़ख्मों से परतों को गर हटा दूं, तो बोलो तुम क्या करोगे? बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की तो बोलो तुम क्या करोगे? तुमने मुझे छोड़ा था, मेरे सबसे बुरे वक्त में, जब तन्हाई बना साथी और आंसू बने श्रृंगार उस साथी उस श्रृंगार का तुमसे नाता जोड़ दूं, तो बोलो तुम क्या करोगे? बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की तो बोलो तुम क्या करोगे? निरुपमा (5.2.24)