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नील..

उसने किताब के पन्नो के बीच से गुलाब की कुछ सूखी पंखुड़िया निकाली, एक पुराना सिगरेट का डब्बा,
एक रुमाल, चॉकलेट्स के कुछ पुराने रैपेर्स, एक कलम टूटा हुआ और... 
और कुछ ख़त...
इन सब को इकठ्ठा कर वो उस से मिलने गयी,
और लिफाफा पकड़ाते हुए कहा,
“अब तुम्हारा कुछ भी नहीं जो मेरे पास रह गया हो,
अब जो है वो सीर्फ मेरा है”,
कुछ देर ठहर कर फ़िर उसने कहा...

“कितनी बेवकूफ थी न मैं, इन सब सामानों को इकठ्ठा करती रही,
तुम्हारे प्यार की निशानी समझती रही,
कि जबकि प्यार तुम्हे कभी था ही नहीं...
प्यार.. तुम्हे कभी हुआ ही नहीं,
खैर..
शिक़ायत तो अपनों से की जाती है, और तुम तो ग़ैर भी नहीं..
सुनो ..जब मेरी आँखें बंद होंगी, तब भी यदि तुम आये मेरी आखिरी झलक देखने,
तो ख़याल रहे तुम्हारी आँखें नम न हो, जिस समाज जिस दुनिया के लिए तुमने मुझे छोड़ा,
कहीं उनकी नज़र में तुम गुनहगार न बन जाओ..

‘नील के पिता का नाम .. आज भी कोई नहीं जानता’
अमन अपलक आस्था को देखता रहा, आस्था भारी क़दमों से सुनसान रस्ते पर नज़रें झुकाए जा रही थी....
...निरुपमा (17.6.19)



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जाने दिया .......

कितने करते गिले शिकवे, सो बस अब जाने दिया।  उसको उसके लिए ख़ुद से दूर बस जाने दिया।  ख़ाक में मिलना था एक रोज़ इस मोहब्बत को, तो आज क्यूँ नही,  उसके लिए और कितना तड़पते, सो बस अब जाने दिया।  इश्क़ कभी था उसको, इस बात का यकीं क्यूँकर करें,  नफरतों की आंधी में सुलगना था सो सुलगते रहे,  उसकी नज़र के बेगानेपन को जिया है एक उम्र तलक,  इस दर्द को मैंने सहा, और सहन कितना करें!  ज़ख़्म अब नासूर बना, सो उसे जाने दिया।  क्यूँ पूछते हो हाल मेरा, सच कहना मुश्किल होगा,  झूठ और कितना कहें सो इस बात को भी जाने दिया।  निरुपमा(11.04.2024) 

शायद ख़ुद की तलाश में।

          आज फ़िर अकेलेपन ने घेर लिया मुझको, सांसों के लय में कोई समानता नहीं, इसके सुर-ताल बिगड़े हुए हैं। ये धड़कने मेरे कानों तक पहोचकर कोहराम मचाए हों जैसे। एक थकावट चारों ओर से घेरे हुए है, हाथ पैर हिलते नहीं, शरीर जैसे जड़ हुआ जाता है, नज़रें पहरों तक झुकी रहती हैं, एक टकटकी लगाए, पत्थर सी। मैं फ़िर से दौड़ना चाहती हूँ, हंसना चाहती हूँ, खिलखिलाना चाहती हूँ, पर अकेलापन मुझे और भी अधूरा किये जाता है। मालूम नहीं ये क्यूँ है! या शायद मालूम करना भी नहीं चाहती।               उम्र के हर दहलीज़ से गुज़र कर देखा, कई बार रस्ते बदलकर देखा, हर उम्र ने हर रस्ते ने मेरा हाथ थामकर कहा, थम जाओ ज़रा, ठहर कर देखो तो ज़रा ख़ुद को, क्या हाल कर लिया तुमने अपना। एक हल्की सी भीगी पलकों पर मुस्कान लिए, फ़िर से निकल पड़ती हूँ उस राह पर, जाने किसकी तलाश में, शायद ख़ुद की तलाश में।  निरुपमा (2/6/25) 

बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की, तो बोलो तुम क्या करोगे?

 बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की, तो बोलो तुम क्या करोगे? गुज़रे हुए लम्हों में जो बरसों की दफ्न यादें हैं, यादों में गहरे ज़ख्म हैं, ज़ख्मों पर परी परतें हैं। उन ज़ख्मों से परतों को गर हटा दूं, तो बोलो तुम क्या करोगे? बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की तो बोलो तुम क्या करोगे? तुमने मुझे छोड़ा था, मेरे सबसे बुरे वक्त में, जब तन्हाई बना साथी और आंसू बने श्रृंगार उस साथी उस श्रृंगार का तुमसे नाता जोड़ दूं, तो बोलो तुम क्या करोगे? बही खाता खोल दूं मैं भी अपनी शिकायतों की तो बोलो तुम क्या करोगे? निरुपमा (5.2.24)