कुछ भी बदलता तो नहीं,
बस..कोई और भी होता है आसपास,
जो रहता है वहीँ कहीं, जहां मैं होती हूँ,
मेरे बाहर बाहर वो टहलता है,
मुझे खुश करने के बहाने ढूंढता है वो,
चलते फ़िरते मेरी पलकों में झाँक लेता है,
और ढूंढता है खुद को,
पलकें गीली, और आँखें सूखी बंज़र ज़मीन सी,
एक साथ रहकर भी, आस पास होकर भी,
जब एक लम्बी सी खाई उसे हमारे दरमियाँ नज़र आती है,
तो देख लेता है आइना,
सोचता है, शायद...
शायद ‘उसमें’ ही कोई कमी होगी,
जो बरसों बाद भी हमारे बीच एक अनजानापन है,
हम दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी हैं,
मैंने कई बार चाहा, कि कह दूँ उसे,
उसमें कोई कमी नहीं,
कमी मुझमें है, कि मुझमें मेरा ‘मैं’
नहीं,
मेरा ‘मैं’ तो कहीं.. मैं तुममे छोड़ आई हूँ....बरसों पहले..
निरुपमा (25.1.20)
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