शाम के करीब पांच बजे थे, और मैं अबतक अपने बिस्तर पर लेटी पंखे को तक रही
थी, न नाश्ता किया न कुछ खाना ही खाया, हाँ एक बार आहाट सी हुई थी तब दरवाज़े तक
गयी थी फिर लौट आई थी, घर के एक कमरे में खुद
को दिन भर बंद रखा मैंने, पर जाने क्यूँ.......... जाने क्यूँ एक अजब सी भीड़ ने
मुझे घेरे रखा एक अजब से शोर से मेरा पीछा छुटता ही नहीं, तन्हाई अक्सर इंसान को
फ्लैशबैक में ले जाती है, मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, तुमसे मिलना, शादी, माँ के
चेहरे की मुस्कान, हमारा नया घर, और घर में एक एक सामान खरीदते वक़्त हज़ार हसरतें,
हजारों आशाएं, अनगिनत ख्वाब......तुम्हारा जाना, मेरा इंतज़ार, हमारे बीच का तनाव
और फिर सब का हस्तक्षेप, इन सब के बाद आज ये तन्हाई.....मैं जानती हूँ तुम कल वापस
आ रहे हो, पर जाने क्यूँ, मुझे कुछ भी महसूस ही नही हो रहा, ऐसा लगता है कि अब क्यूँ
आ रहे हो अब! क्यूँ आ रहे हो अब! अब तो फैसला भी हो गया था, मेरी किस्मत का, मेरी
ज़िन्दगी का, हाँ कि मेरा कोई भविष्य नहीं है, मेरी ज़िन्दगी बस वर्तमान तक ही थी,
अब कहानी ख़त्म होने को है, पर...तुम आ रहे हो! तुम क्यूँ आ रहे हो अब???? बस यही सोच
रही हूँ, अपने बिस्तर पर पड़ी बस यही सोच रही हूँ......
बस, फैसलों की घड़ी थी अब, न वो मेरा था, न मैं ही राह में खड़ी थी अब। अब जो छूटा, सब छूटता चला गया, मैंने भी इस दिल की, कब सुनी थी अब। दिल को कुछ कहना था, कोई नाम गुनगुनाना तो था, दिल की ना सुनूंगी, इस बात पर मैं अड़ी थी अब। तन्हाई की राह, बेहद तन्हा.. बेहद मुश्किल थी मगर, बस इसी राह पर चलने की अपनी ठनी थी अब। निरुपमा (14.12.22)
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