न डोली , न शेहनाई , न तारों की बारात , हम चल पड़े थे यूँही , बस थामें तुम्हारा हाथ , तुम्हारी खामोश आँखों में जाने क्या क्या पढ़ा हमने , कुछ अनसुने अल्फ़ाज़ , कुछ इश्क - ओ-मुहब्बत की बात , या नज़रें झूठ कहती थी , या तुमने सच छुपाया था , किस तरह बेहिसाब मुझपर इलज़ाम लगाया था , आँखों की खुमारी , दिल का नशा जाता रहा , तुमने कुछ तरह से तोड़ा मुझे , टुकड़े टुकड़े में मेरा इश्क सर झुकाए रोता रहा , ख़ाब तो ख़ाब थे , हकीक़त कुछ और ही थी , न तुम थे , न कोई आहट , न परछाई ही थी , आज फ़िर दूर तलक , मेरे सिर्फ़ तन्हाई ही थी , .....निरुपमा 19.7.18 मेरी कविता मेरी ही आवाज़ में... https://www.youtube.com/watch?v=objXnQOKYUE&feature=youtu.be
ज़िन्दगी के सफहों को पलटते हुए, कुछ ख़ास पल जैसे हाथ पकड़कर रोक लेना चाहते हैं!