एक छोटे से पल को पकड़कर चली आई थी मैं,
वो पल, जो हमारे बीच गुज़रे लम्हों का यादगार था,
वो पल, जो तुमसे जुड़े अनगिनत ख़ाबों का असफ़ार था,
वो पल के जिसमें मैं और तुम थे, हमारा एक संसार
था,
तुमसे दूर रहूँ! कब ख़ुद पर मुझको इख्तियार था,
तुम्हारी आँखों की रौशनी, मेरी ज़ुल्फ़ों का तलबगार था,
जहां तसल्लियों के दिन थे, ख़ुशनुमा सी रातें थी,
दोनों बस साथ थे, यूँही बेवजह की बातें थी,
उन्ही को ढूंढती फिरती हैं आज भी मेरी दो आँखें,
काश हो जाए फिर बेवजह, बेफिज़ूल
की चंद बातें
........निरुपमा 7.7.18
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