एक बड़ा फ़ैसला, तुम पर छोड़कर मैंने सोचा, कि अब कोई फ़ैसला न करना होगा, तुम्हारे किये फ़ैसले के लिए जीवन भर तुम्हे दोष देती।रही, सोचती रही, कि कितनी आसानी से तुमने किनारा कर लिया। गुज़रते वक़्त की उड़ान को पर कहां कोई रोक पाया है, वक़्त गुज़रता गया, और फ़ैसलों की घड़ी बार बार आती गई, वक़्त और हालात के मुताबिक मुझे फ़ैसले लेने पड़े, तब जाना, फ़ैसला लेना आसान नहीं होता। तुम भी तो चले होगे चाकू की तेज़ धार पर, जब तुमने कहा, अब बस सब खत्म हुआ, बस यहीं तक था साथ हमारा। .... निरुपमा (28.6.20)
ज़िन्दगी के सफहों को पलटते हुए, कुछ ख़ास पल जैसे हाथ पकड़कर रोक लेना चाहते हैं!